Tuesday, 2 September 2008

" क से कपड़ा , क से काया , क से कम "




गाँधी ने पगड़ी पहननी छोड़ दी । आधा दर्जन औरतें जितने कपड़े से अपना तन ढांप सके , उतना सिर पर लपेटे घूमना ... उन्हें घृणित लगा । गंगा घाट पर भीख मांगने वाली शबरी , भोर अंधेरे ही स्नान करती है, क्योंकि उसके पास दूसरी साड़ी नहीं है। अमेरिका से आयातित चीयरबालाएं नाम मात्र के ही कपड़े पहनती हैं , क्योंकि ज्यादा में आईपीएल की तौहीन होती है।

संसद और विधानसभाओं में सफ़ेद झक्क कपड़े पहन , एक दूसरे पर चप्पलें और माँ की गालियाँ बरसाने वाले गणमान्य नेता , चीयर बालाओं के कपडों को लेकर चिंतित हैं। भारत का धनी अंग्रेजीदां वर्ग , चीअर लीडर्स के डांस को अश्लील बताने वाले हिन्दी भाषी मध्यम वर्ग से परेशान है।

अमेरिका अपनी नाक पोंछकर जो कपडा सड़क पर फेंकता है हम उसे उठाकर गेंहू की बनी गर्म रोटियों के नीचे बिछाते हैं। आधी रात को होने वाली संभ्रांत घरों के नौनिहालों की " रेव पार्टीयाँ " और " करीना का ज़ीरो फिगर " अब इंडिया में आम है। ....बस आम आदमी ही आम नहीं है। ......' एब्सर्ड ' है।

चीयरलीडर्स को नाचते , कूल्हे झटकाते और " चोली के पीछे क्या है " का जवाब देते देखकर आँठ साल की ' निर्जला ' वैसे ही नाचने लगती है, और अपनी ' वर्किंग वूमन ' माँ से वैसी ही छोटी - छोटी ' ड्रेस ' लाने की ' डिमांड ' करती है। तो भारत की ९ फीसद विकास दर का एहसास होता है।

अब चिंता है तो बस इस ' मिडल क्लास ' की, जो भारत की संस्कृति को लेकर जब देखो रोने लगता है। ....चिंता है तो उन औरतों की जो सिर में आधा किलो लाल सिन्दूर डाले संस्कारों की रट लगाए रहती है। अगर यही सब रहा तो लड़कियाँ कैसे शर्लिन चोपड़ा और करीना की माफिक अपनी देह दिखा पाएंगी। ...कैसे लड़के होठों पर लिपस्टिक लगाए मेट्रोसेक्सुअल बन पायेंगे । अब तो बस आई.पी.एल का ही सहारा है। कम-स-कम चीअरलीडर्स को सार्वजनिक रूप से ही नचवाकर हमें दकियानूसी भारत से ' इनक्रेडिबल ' और आधुनिक इंडिया बनने का ' चांस ' तो दिया।

Monday, 1 September 2008

" जय श्री राम ..... आज के मुख्य समाचार " " क्या एक पत्रकार को धर्मनिर्पेक्ष होना चाहिए ?"


टेलीविजन पर एक समाचार वाचिका आए और बोले," पार्वती माता की जय.... आप देख रहे हैं आज के मुख्य समाचार ...!" तो आपको कैसा लगेगा ? एक अन्य सज्जन बढ़ी दाढ़ी और सिर पर गोल चोटी टोपी ओढे कहे, " अस्सलाम वालेकुम.........अल्ला के फजल-ओ-करम से आप सुन रहे हैं आज की ताज़ा खबरें ....... मैं हूँ मौलवी अमानउल्ला ...! " तो आप उसे क्या कहेंगे ? एक पत्रकार या धार्मिक पत्रकार ?

पत्रकार का काम खबरें देना और उन ख़बरों की व्याख्या करना है। उसमें समाज के हित से जुड़ा निष्पक्ष नजरिया पेश करना बहुत जरुरी होता है। एक पत्रकार को क्या धर्मनिर्पेक्ष ही होना चाहिए ? धर्मनिर्पेक्ष पत्रकार अगर किसी राजनीतिक दल के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर करता है तो क्या वह एक धार्मिक पत्रकार से बेहतर है ?

यह सवाल केवल धर्मनिर्पेक्षता का ही नहीं वरन उसके द्रष्टिकोण का है । अपने घर में एक पत्रकार नमाज पढ़े या हनुमान चालीसा, यह उसका निजी निर्णय है। यह उसके पत्रकारिता धर्मं की नैतिकता और मूल्यों के आड़े नहीं आता हैं।

एक मुसलमान पत्रकार हज पर जाने वाले श्रद्धालुओं पर धार्मिक जानकारीनुमा श्रृंखला तैयार करता है। और दूसरा खली की पूर्वनियोजित हार का एक घंटे तक विश्लेषण करता है। .......दूसरे पत्रकार की धर्मनिरपेक्षता क्या सम्मान करने योग्य है ?

वँही हज के प्रति पूर्व से श्रद्धान्वित पहला पत्रकार ...... हज पर जाने वालों की मनोदशा , रहन सहन , सरकारी सब्सिडी और उनका धार्मिक इतिहास बताता है....तो उसका धार्मिक होना भी पत्रकारिता को बेदाग़ रखता है।

पत्रकार का धर्मं उसका पूर्वाग्रही नहीं होना है। उसकी निष्पक्ष विश्लेषणपरकता , उसके धार्मिक होने पर भी उसे धर्मनिरपेक्ष ही साबित करती है। हर धर्म में विश्वास रखने वाला व्यक्ति अपने धर्मं से सीख सकता है कि अपने कर्म को कैसे सबसे ऊपर रखकर चला जाए । विपरीत परिस्थितियों में उसका धर्मं ही उसके ईमान को विचलित होने से रोकता है। जनहितकारी पत्रकारिता में उसका धार्मिक विश्वास ही उसका अंगरक्षक होता है।

Thursday, 28 August 2008

" एक चित्र ...... अनेकों अक्षर " ( एक तस्वीर हज़ार शब्द )








" मोनालिसा की तस्वीर को जिधर से भी देखो , उसकी आँखे हर तरफ़ देखती हैं ..........."

बचपन में ऐसा बहुत सुना। देखने पर सच भी पाया। मंडल कमीशन के दौर में एक तस्वीर बहुत कुछ कह गई। " राजीव गोस्वामी " एक छात्र नेता के अग्निदाह की वह तस्वीर आरक्षण का विरोध करने वाले लाखों छात्रों के करोडों शब्दों को बयाँ कर जाती है। २००२ गोधरा में , अखबारों , टेलीविजन और वेब पर एक तस्वीर सबसे प्रमुख दिखाई देती है। " माथे पर भगवा फीता बांधे , हाथ में नंगी तलवार लहराते हुए , दुबला - पतला दंगाई , जो हलक़ फाड़कर कुछ ज़ाहिर कर रहा है। " शायद दंगा पीड़ितों के नरसंहार की हकीक़त...... जो निर्मम है। शायद क़त्लेआम करने वालों के क्रूर इरादे .... जो घ्रणित है।

समय विशेष की इन तस्वीरों की कहानी की सीमा तो कुछ हज़ार शब्दों पर रुक सकती है , लेकिन पाब्लो पिकासो , लिओनार्दो-दा-विन्ची , रघु राय इनके चित्र तो आज भी मोटे-मोटे थीसिस को आमंत्रित करते हैं। जिससे इन चित्रों की थोड़ी-बहुत बराबरी की जा सके। चे गुवेरा की तिरछी टोपी लगाए , घुँघराले बालों वाली तस्वीर या भगत सिंह की जेल में हथकड़ी पहने बैठे की फोटो । ये रोज़ाना असंख्य युवाओं के कमरों की दीवारों पर चिपकती हैं, उनके टी-शर्टों पर छपतीं हैं, उनके विचारों का निर्धारण कराती हैं, उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं। महात्मा गाँधी की तस्वीरें और रूप-आकृतियाँ तो चाय के मगों पर भी छपीं बड़े घरों के डाइनिंग-टेबल की शोभा बढ़ातीं हैं।

किसी चित्र की व्याख्या लाख शब्दों में की जा सकती हैं , लेकिन ज़रूरी नही ....... कि लाख़ शब्दों के आधार पर एक सजीव चित्र अक्षरश बनाया जा सके । आज का टेलीविजन युग चित्रों कि महत्ता को सिरे से बयां करता है। पहलवान खली की एक तस्वीर से लेख़क, एक घंटे के कार्यक्रम की कहानी लिख डालता है।

ग़रीब-अमीर, अनपढ़-साक्षर, महिलाऐं-बच्चे और कभी-कभी तो पशु भी हज़ार शब्दों की बात को एक चित्र से समझ जाते हैं। तस्वीरें भाषा, रंग, देश, काल और सोच का बंधन तोड़ती हैं। एक आदिवासी और एक उच्च - शिक्षित युवा को तस्वीर के रंग और मायने पता हैं। एक-दूसरे के अक्षर नहीं।

प्रकृति से बड़ी चित्रशाला तो शायद क्या होगी। जो रोज़ाना करोड़ों शब्दों के निर्माण को न्यौता देती है। भारत की फिल्में तीन घंटे के समय में १०० साल से भी ज्यादा का जीवन पिरो देती हैं...... केवल चलते चित्रों की वजह से।
अपने इतिहास की व्याख्या हम शब्दों से करते हैं।
क्या यह बिना तस्वीरों के कर पाना सम्भव है

Wednesday, 27 August 2008

" बोए खेत काटे रेत : आज का किसान ग्लोबलाइजेशन तले "







सबका पेट भरने वाला, भारत का किसान आज भूखों मर रहा है। क्योंकि आज ग्लोबलाइजेशन तय कर रहा है। कौन राजा बनेगा, कौन रंक । सबसे ऊपर हुआ करने वाला किसान अब सबसे नीचे है । आईटी क्रान्ति के नारे बुलंद है। एसी के नीचे बैठकर कंप्यूटर चलाने वाला सम्रद्ध है , धूप के नीचे हल चलाने वाला काला है वृद्ध है।

पहले मौसम मेहरबान होता था। फसल लहलहाती थी। अब उसने भी किनारा कर लिया है। देश में नहरों की मौजूदगी भी बिखरी हुई है। जैसे तैसे करके होने वाली फसल ....खरीदने कोई नहीं आता है। सरकार आती है तो मुठ्ठी भर रुपयों के साथ । बड़ी कंपनियाँ विदेशों से सस्ता धान खरीदतीं हैं। सीमाँ कर ने महँगे मोबाइल टकेके भाव कर दिए तो विदेशी फसलें भी टके के मोल मिलने लगीं ।

महाराष्ट्र में पशु नहीं मरते , जितने तो किसान जहर खा लेते हैं। जिसके पास जहर के पैसे भी नहीं होते हैं वे खेत की ही किसी सूखी खेजड़ी से झूल जाते हैं। कपास की खेती करते हैं, पर पहनने को लंगोट के अलावा कुछ भी नहीं है। अब तो किसानों को भी मरनेकी आदत सी हो गई है। जिस दिन नहीं मरे, उस दिन लगता ही नहीं कि भारत में ग्लोबलाइजेशन है।

मजदूर किसान
हितों को झंडा बनाकर आगे बढ़ी पार्टियाँ, हँसिया और गेहूँ की बाली, अपनी पार्टी कार्यालयों की दीवारों पर पुतवाती हैं। फिर अंग्रेज़ी में लेख लिखतीं हैं , भाषण देती हैं।
सरकार आज लाचार हैं? इतनी कि , किसान भी नहीं ।


ग्लोबलाइजेशन के लेंस से झाँककर यदि देखें , तो यहाँ का किसान ...ऐसा लगता है कि पुरा पाषाणकाल में से निकलकर कोई आदिवासी आ पहुँचा है। लगता है कि ....इन्हें गुलाम बनाकर सिर्फ़ खेती करवानी चाहिए। ताकि हम वैश्वीकरणका शुक्रिया अदा कर सकें। आईटी क्रांति को दोनों कन्धों पर उठाकर नाँच सकें।


सामने नीचे बैठा ...विदर्भ के ही किसी स्वर्गीय किसान का बेटा , संग-संग नाच रहे ग्लोबलाइजेशन की बलइयां ले सके।

" ये चाय वाले लड़के क्या बाल मजदूर हैं ?"


सुबह उठते ही... मैं सबसे पहले जिससे बात करता हूँ , " वह एक चाय वाला लड़का है। आधे बाजु की बुशर्ट पहने, मुँह लटकाए ऐसे लगता है .... जैसे नींद लेने के लिए सदियों से तरस रहा हो। आगे स्टोव पर चढ़ा चाय का टोपिया, हरदम चायपतीमय दूध से भरा रहता है। पास ही में एक बड़ी नल लगी बरनी लगी है। उसके नजदीक प्लास्टिक की छोटीं गिलासें उल्टी खड़ी हैं। और आगे ब्रेड ...अंडा ...चावल...
जो जैसा मांगे वैसा बिना जवाब दिए बना दो। .....उसकी तो पैसे लेने की इच्छा तक नहीं होती हैं। .....होती है तो बस एक चीज़ लेने की और.... वो है........."नींद"।

" होठ का निचला भाई, हमेशा लटका रहता है ....उसके उदास मुँहकी तरह। लगता है बहुत वजनी है। शरीर एकदम ठंडा ........नहाया हुआ। आख़िर नींद जो उड़ानी होती है "

मैं उसके सामने पँहुचते ही कहता हूँ .... " चाय "!

उसकी आँखे इशारे में ही बोल पड़ती हैं, " लो एक और चाय का नशेड़ी! " उसकी मशीनी रफ्तार " स्मूथली " चाय की गिलास भर देती है। और अनमने ढंग से वह ४ रुपए ले लेता है ।

हर चाय के बाद शायद उसे लगता है कि अब उसका मालिक आएगा और कहेगा ....................." नींद !"

तभी सामने से आवाज आती है , ' ऐ छोटू ...................एक चाय !'
और उसकी आँखे ................. ।

" हँसी कुदरत की सबसे बड़ी नेमत है "


" सुबह - सुबह पार्को में जोर-जोर से समूह बनाकर हँसते लोग, टेलीविजन पर राजू श्रीवास्तव को देखकर अस्पतालों में बेड पर लेटे और बैठकर हँसते लोग , ऑफिस में चाय की चुस्कियां लेते और भारत को क्रिकेट में जीतते देखकर हँसते लोग, चाय के ढाबे पर काम करते-करते हँसी-ठिठोली करते बच्चे और ओल्ड एज होम्स में एक-दूसरे की दुर्दशा पर चुहलबाजी कर हँसते अनाथ निशक्तजन !"

यह है कुदरत की सबसे बड़ी नेमत हँसी और उसका ग्लोबल चेहरा ।

वह जो नवजात है अपनी माँ की ममतामयी छांव में खेल रहा है, वह जो 90 साल का बूढा है अपनी जीवनसंगिनी के हाथ को थामे बगीचे में टहल रहा है, दोनों के मुँह में दाँत नहीं है.... लेकिन हँसी है ।

कहते हैं ...हँसी न हो तो जीवन शमशान की मिट्टी जैसा सख्त हो जाए। हँसी जन्नत को धरती पर ले आती है। भूखे खाली पेट इंसान को इसे खाने के लिए रूपया नहीं चुकाना पड़ता। इस कल्पवृक्छ की छाँव अथाह है।

आज हँसाकर रोगी का इलाज किया जाता है। हँसी-खुशी दोस्त मिलते हैं। जिन्दगी के पलों को यादगार बनाते है। तेजी से दौड़ती जिन्दगी पूरा स्वाद देने लगती है। सूरज की पहली किरण, धरती के असंख्य फूलोँ को हँसाती है। हँसी की आजाद आवाज प्रकृति के मन्दिर में घंटियों की मीठी राग छेड़ जाती है

जीवन में सब कुछ हाथ से रेत की तरह फिसल जाता है.... बस हँसी ही हाथ थामे हँसती रहती है।

Sunday, 17 August 2008

सुख सागर के विचार



कार्यों मे योग्य व्यक्तियों को कभी अवसरों का अभाव नहीं होता। ऐसा व्यक्ति छिपा नही रह सकता क्योकि ऎसे व्यक्ति की खोज मे अनेक लोग लगे रहते हैं। जो इस बात के लिए उत्सुक रहते हैं कि इस (व्यक्ति ) से लाभ उठाया जाए। यदि योग्यता से सम्पन्न व्यक्‍ति अपने को छिपाने की कोशिश भी करे तो भी खोज लिया जाएगा और जिन्हें उस की अवश्‍यकता हो उनको कर्यो मे योग देने के लिए प्रेरित किया जाएगा। तो जीवन मे सफल होने का उपाय यह है कि मनुष्य अपने को कार्य करने के पूर्ण योग्य बनाये। संसार मे अवसरों की कोई कमी नही है हर समय कोई न कोई अवसर आप के द्धार पर खडा आप का दरवाजा खट्खटा रहा होता है। परन्तु उस अवसर(Opportunity) का लाभ उठाने के लिए अपने को पूर्ण रुप से तैयार करना होगा, प्रशिक्षित करना होगा। लेकिन उस के लिए अवसर (Opportunity) को देखने मे सतर्कता, अवसर (Opportunity) को पकडने मे व्यवहार कुशलता तथा साहस का होना अवश्यक है। अवसर के द्धारा पूर्ण सफ़लता प्राप्‍त करने के लिए अदम्य शक्‍ति और कार्य को पूर्ण किए बिना न छोडने का धैर्य - ये है ठोस गुण, जिस के द्धारा सफलता अवश्य प्राप्‍त किया जा सकता है।



डिजरेली का कहना है ' जीवन मे मनुष्य के लिए सफ़लता का रहस्य यह है कि अवसर (Opportunity) के लिए हमेशा तैयार खडे रहें, जब अवसर (Opportunity) आये उसे पकड लें '। आलसी व्यक्‍ति को सुनहरे अवसर भी उन्हे उपहास्यपद बना देगा अगर उस को पकडने के लिए तैयार नही हो। जब कोई व्यक्‍ति किसी अच्छे पद पर आसीन होता है उस का कारण यही होता है कि कई वर्षो से उस की तैयारी कर रहा था, केवल इस लिए नही कि उसे परिस्थितियों का लाभ मिला है। किस्मत हमेशा उस की सेवा मे हाजिर रहता है जो उस के योग्य हो ।



रस्किन का कहना है जवानो का सारा समय वस्तुत: निर्णय, ज्ञानवृधि तथा शिक्षण का समय है। जवानी का कोई भी क्षण ऎसा नही है भवितव्याताओ ( होनहारों, भाग्य, किस्मतों) से कम्पित न हो; एक भी क्षण ऎसा नही है के जब वह गुजर जाए तो उस का निर्धारित कार्य फिर कभी हो सके। जब लोहा ठंडा हो जाए तो उस पर चोट के क्या माने'।



अवसर (Opportunity) तो मानव समाज की नीवों मे ही प्रस्तुत रुप से विधामान है। अवसर तो हमारे पास सब जगह है। हां इस का अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिए अवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्‍ति इसे स्वंय देखें और उपयोग मे लाए। प्रत्येक वयक्‍ति को इसे अपने लिए बनाना होगा, खुद बनाना पडेगा वरना यह कभी नही बनेगा। सेंट बर्नार्ड का कहना है 'मुझे मेरे बिना और कोइ नही बना सकता'।



अवसर (Opportunity) को बिगुल की आवाज कहा जा सकता है। यह सेना को लड्ने के लिए तो बुला सकता है परन्तु सेना को युद्ध जिताने का साधन नही बन सकती। यह स्मरण रखना चाहिए कि हम किसी भी क्षेत्र मे अपनी शक्‍तिओ का विकास करें, तथा जीवन मे विविध अवसरों के लिए अपने को प्रक्षिशित करें। प्रत्येक व्यक्‍ति जानता है कि कुछ क्षण ऎसे होते हैं जिन पर वरसों का भाग्य निरर्भर होता है। हमे यह भी हमेशा ध्यान मे रखना चाहिए कि अनुकूल अवसर कुछ क्षणों के लिए ही आता है। यदि हम उस क्षण मे चुक जाते है तो हमने न जाने कितनी साल व महिने खो दिए। किसी काम को करना वैसे तो केवल बीज बोना है। यदि सही समय पर नही बोया गया तो अंकुर नही फुटेगें। जिस नौजवान का मन कर्मशील है उस के लिए अवसर (Opportunity) पर अवसर है। कोई एक अवसर आखरी समय पर पकडने के लिए उसे दौडना नही पडता।



जीवन मे फैसला करने का क्षण अत्यन्त छोटा होता है, यदि हम सतर्क रहेंगे तो सफल अवश्य होगें। क्‍योकि सफलता और असफलता के मध्य अन्तर बहुत थोडा होता है और अन्तर करने वाली बात यही है।