Monday, 15 March 2010

'पुरूषवादी गंदली काई में चंडियां'

('नारी तूं नारायणी' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। www.discussiondarbar.blogspot.com )

हैं, कुछ बातें सही हैं। कहने का तरीका आक्रामक और बेपरवाह किस्म का है। कुछ फ्रस्ट्रेशन भी है। बहुत सी बातें खारिज करने लायक हैं। पुरूषवादी मानसिकता साफ झलकती हैं। साफ लगता है कि मनन करने की आदत नहीं है। विचारों को कॉपी-पेस्ट करने में यकीन करते हो। यहां से पढ़ा, वहां लिखा। यहां से सुना, मानकर वहां कहा। इस तरह से। यह रोग युवाओं में बड़े पैमाने पर लगा है। और युवाओं में ही क्यों, समाज में जन्मने वाले शिशु से लेकर अर्थी में लेटने वाले बूढ़े तक सभी तो उम्र भर अपने भेजे को सुलाए ही रखते हैं। शिक्षा ही ऐसी है, क्या करें? अपनी सोच विकसित करने, नए प्रयोग करने, ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने और अभिनव प्रयोग करने को तो इन समाजों में हतोत्साहित ही किया जाता है।

पंचायतों में सच है कि सरपंच महिलाओं के पति ही असली सरपंच हैं। पर इसी बहाने वह औरत घर से बाहर तो आई। मसलन, राजस्थान की एक छोटी जगह, एक छोटे से गांव, एक पिछड़े गांव में एक ऐसी लड़की सरपंच है, जो लेडी श्रीराम कॉलेज दिल्ली में पढ़ी है। अंग्रेजी में पढ़ी-लिखी है (यह उदाहरण इस लिए कि एक समाज के रूप में हम अंग्रेजी बोलने वाले को सफलता का पर्याय मानते हैं।) जींस और शर्ट पहनती है। घोड़े की सवारी करती है। और यह सरपंच लड़की हर वो काम करती है, जो एक पुरूष सरपंच नहीं कर पाता।

तो यह लड़की सरपंच क्यों बनी? इसके मन में ये ख्याल भी कैसे आया? वह डुंगरपुर की महिला कलेक्टर (संभवत: अंजू) की तरह कलेक्टरी करके लोगों की सेवा और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के काम से जुड़ सकती थी। बहुराष्ट्रीय कंपनी में करोड़ के पैकेज पर नौकरी कर सकती थी। सवाल यह भी है कि आज से पहले कितनी लड़कियां एलएसआर से आई हैं। यानी सरपंचाई में औरतों को मुखरता मिलने से पहले ऐसे मामले कितने थे। चक्कर यह है कि पुरुषों की मूछों के बाल नीचे जो हो जाते हैं, इसलिए उनका सारा ध्यान महिलाओं को उनके साथ एक ही जाजम पर नहीं बैठने देने का होता है।

आरक्षण का जहां तक सवाल है, तो वह मिलना ही चाहिए। क्यों नहीं मिले? सदियों तक चूल्हे में फूंकनी मारते-मारते अपनी सांसें जला बैठी औरतों की कौम को जानबूझकर पीछे रखे जाने का मुआवजा तो देना ही होगा। शराबी पति की गालियां सुनती, मुहल्ले भर के सामने मानमर्दन झेलती, सास की प्रताडऩा से तिल-तिल मौत मरती, अपने जिस्म को ढांपती (पुरूष को अपनी कमर के नीचे के हिस्से को खुजाते हमेशा देखा गया, क्योंकि उसे खुजली होती है। अगर एक महिला अपने किसी भी अंग को खुजाए तो यह सैक्स के लिए आमंत्रण बन जाता है। क्या व्यंग्य है? क्या बकवास है।) और अबला होने का संताप लिए मर जाती नारी को नारायणी कह देने से ही कुछ नहीं होता है। पुरूष का शादी से पहले दसों को नीचे से निकाल देना दोस्तों के बीच हांकने वाला अचीवमेंट होता है। पत्नी के शादी से पहले संबंध रहे हों, तो इन्फोसिस में काम करने वाला भी आत्महत्या कर लेता है। बेअक्ल।

आरक्षण गांव की औरतों के लिए वरदान ही तो है। कलेक्टर, जिला अधिकारी, पुलिस अधिकारी, चुनाव अधिकारी, नरेगा, आरटीआई, निर्माण कार्य, फंड, बैठकें, सार्वजनिक सुनवाइयां, लोगों से मुलाकातें और एक सरपंचनुमा पदवी (बाकियों की भाषा में डेजिगनेशन) के साथ जीना कैसे होता है? यह जानना क्या व्यर्थ है? नहीं यह बड़ा पुरस्कार है, बड़ी हसल है। संसद में आरक्षण के लिए देश को अस्थिर कर देने वाले महिला आरक्षण से डर रहे हैं। हालांकि इस पर कई बातें हो सकती हैं। यही आखिरी सत्य नहीं है। दूर-दराज के सामाजिक जंगल में सदियों में जमी पुरूषवादी गंदली काई को घिस-घिस कर हटाने के लिए तेजाब चाहिए। और आरक्षण तो सिर्फ बर्तन धोने वाली साबुन और ब्रश है। फिर भी यह काम करेगा।

जन्म देने वाली मां को बस में भारी भीड़ में सबसे धक्के खाते देखना दिलचस्प होगा न? कोई उसे बैठने के लिए सीट दे या न दे? क्या फर्क पड़ता होगा ना? औरतों को कुछ विशेष देने की क्या जरूरत है? क्यों? तुम्हारी बहन अगर आगे बढ़े तो कैसा लगेगा? अगर पुराने विचारों से लैस नहीं हो तो बताना।

बात इतनी सी है कि कभी-कभी अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर सोचना पड़ता है। इसने सालों से दिमाग पर जो पूर्वाग्रहों की परत जमी है, उसे हटा पाना दु:खदायी अभ्यास है। हर किसी के बस में नहीं है। ये ऐरे-गेरे हमारे जैसे औसत लड़के सलवार-कमीज-चुन्नी में चोटी गूंथ कर जा रही कस्बाई लड़की को तो छेड़ेंगे, उस पर फिकरे कसेंगे। मगर मल्लिका सहरावत जैसी बोल्ड लड़की के सामने दुम दबा लेंगे। उससे बात भी नहीं कर पाएंगे। कई चंडियां ऐसी हैं, जिनके आगे नहीं पसरने के अलावा इन मर्दों के सामने चारा नहीं।

गजेन्द्र सिंह भाटी