" मोनालिसा की तस्वीर को जिधर से भी देखो , उसकी आँखे हर तरफ़ देखती हैं ..........."
बचपन में ऐसा बहुत सुना। देखने पर सच भी पाया। मंडल कमीशन के दौर में एक तस्वीर बहुत कुछ कह गई। " राजीव गोस्वामी " एक छात्र नेता के अग्निदाह की वह तस्वीर आरक्षण का विरोध करने वाले लाखों छात्रों के करोडों शब्दों को बयाँ कर जाती है। २००२ गोधरा में , अखबारों , टेलीविजन और वेब पर एक तस्वीर सबसे प्रमुख दिखाई देती है। " माथे पर भगवा फीता बांधे , हाथ में नंगी तलवार लहराते हुए , दुबला - पतला दंगाई , जो हलक़ फाड़कर कुछ ज़ाहिर कर रहा है। " शायद दंगा पीड़ितों के नरसंहार की हकीक़त...... जो निर्मम है। शायद क़त्लेआम करने वालों के क्रूर इरादे .... जो घ्रणित है।
बचपन में ऐसा बहुत सुना। देखने पर सच भी पाया। मंडल कमीशन के दौर में एक तस्वीर बहुत कुछ कह गई। " राजीव गोस्वामी " एक छात्र नेता के अग्निदाह की वह तस्वीर आरक्षण का विरोध करने वाले लाखों छात्रों के करोडों शब्दों को बयाँ कर जाती है। २००२ गोधरा में , अखबारों , टेलीविजन और वेब पर एक तस्वीर सबसे प्रमुख दिखाई देती है। " माथे पर भगवा फीता बांधे , हाथ में नंगी तलवार लहराते हुए , दुबला - पतला दंगाई , जो हलक़ फाड़कर कुछ ज़ाहिर कर रहा है। " शायद दंगा पीड़ितों के नरसंहार की हकीक़त...... जो निर्मम है। शायद क़त्लेआम करने वालों के क्रूर इरादे .... जो घ्रणित है।
समय विशेष की इन तस्वीरों की कहानी की सीमा तो कुछ हज़ार शब्दों पर रुक सकती है , लेकिन पाब्लो पिकासो , लिओनार्दो-दा-विन्ची , रघु राय इनके चित्र तो आज भी मोटे-मोटे थीसिस को आमंत्रित करते हैं। जिससे इन चित्रों की थोड़ी-बहुत बराबरी की जा सके। चे गुवेरा की तिरछी टोपी लगाए , घुँघराले बालों वाली तस्वीर या भगत सिंह की जेल में हथकड़ी पहने बैठे की फोटो । ये रोज़ाना असंख्य युवाओं के कमरों की दीवारों पर चिपकती हैं, उनके टी-शर्टों पर छपतीं हैं, उनके विचारों का निर्धारण कराती हैं, उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हैं। महात्मा गाँधी की तस्वीरें और रूप-आकृतियाँ तो चाय के मगों पर भी छपीं बड़े घरों के डाइनिंग-टेबल की शोभा बढ़ातीं हैं।
किसी चित्र की व्याख्या लाख शब्दों में की जा सकती हैं , लेकिन ज़रूरी नही ....... कि लाख़ शब्दों के आधार पर एक सजीव चित्र अक्षरश बनाया जा सके । आज का टेलीविजन युग चित्रों कि महत्ता को सिरे से बयां करता है। पहलवान खली की एक तस्वीर से लेख़क, एक घंटे के कार्यक्रम की कहानी लिख डालता है।
ग़रीब-अमीर, अनपढ़-साक्षर, महिलाऐं-बच्चे और कभी-कभी तो पशु भी हज़ार शब्दों की बात को एक चित्र से समझ जाते हैं। तस्वीरें भाषा, रंग, देश, काल और सोच का बंधन तोड़ती हैं। एक आदिवासी और एक उच्च - शिक्षित युवा को तस्वीर के रंग और मायने पता हैं। एक-दूसरे के अक्षर नहीं।
प्रकृति से बड़ी चित्रशाला तो शायद क्या होगी। जो रोज़ाना करोड़ों शब्दों के निर्माण को न्यौता देती है। भारत की फिल्में तीन घंटे के समय में १०० साल से भी ज्यादा का जीवन पिरो देती हैं...... केवल चलते चित्रों की वजह से।
अपने इतिहास की व्याख्या हम शब्दों से करते हैं।
क्या यह बिना तस्वीरों के कर पाना सम्भव है