Tuesday, 16 March 2010

'काली पट्टी बाँधे एक कमर्शियल वेंचर आईपीएल'

आईपीएल को इस सकारात्मक नजरिए से देखना जल्दबाजी और गलत होगा। यह एक कमर्शियल वेंचर या व्यावसायिक उद्यम है। इसमें राजस्थान में हुई एक दुर्घटना के प्रति सहानुभूति जताने के लिए अगर बाजू पर काली पट्टी बांधकर खिलाड़ी खेल रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे इसे सहानूभुति प्रकट करने या पीडि़तों के साथ खड़े होने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इसका एक कारण मैनेजमेंट बोर्ड और मार्केटिंग की टीम की सोच भी है। वह सोच व्यावसायिक कारणों से शुरू होकर वहीं पर खत्म हो जाती है।

यह ऐसा मौका है, जब बिना ज्यादा प्रयास किए बहुत कुछ पाया जा सकता है। आईपीएल की टीमें दरअसल विश्व भर के खिलाडिय़ों को मिलाकर बनाई गई है। राजस्थान रॉयल्स में कितने राजस्थानी है? यह सभी जानते हैं। अब क्रिकेट, बेसबॉल, बॉस्केटबॉल, हॉकी, कुश्ती या कबड्डी कोई भी खेल हो, इसमें एक बात स्पष्ट होती है। यह कि खेल में दर्शक के पास एक अपनी टीम होनी चाहिए जो क्षेत्र, राष्ट्र, रंग, जाति या किसी निजता के कारण उससे जुड़ी हो। जिसकी जीत-हार से उस देखने वाले पर फर्क पड़ता हो। एक बार जब कोई टीम उसकी अपनी हो जाती है, तो फिर उसके बाद वह बंध जाता है। नैतिकता व अन्य मनोवैज्ञानिक दायित्वों से।

आईपीएल से पहले हमारी टीम थी, भारत की टीम। या रणजी के रुप में हमारे राज्य की टीम। मगर आईपीएल के सभी खिलाड़ी राज्यों के नाम की टीमें होने के बावजूद राज्य के नहीं थे। इसलिए फिल्म कलाकारों को टीमों का मालिक बनाया गया, ताकि जनसमुदाय को बटोरा जा सके। उन्हें समर्थकों में बांटा जा सके। टीमों के अनावरण के वक्त राज्यों और स्थानीयता की मुहर टीमों पर लगाने के लिए चेन्नई की टीम का झंडा उठाने के लिए मीडिया के सामने दक्षिण के फिल्म सितारे को खड़ा किया गया। और अब ऐसा शोक का मौका भुनाया गया।

इंडियन प्रीमियर लीग मुनाफे का धंधा है। मुनाफा मनोरंजन से जुटाया जाता है, तो ललित मोदी ने शाहरुख खान को लिया, शिल्पा शेट्टी को लिया, प्रीति जिंटा और कारोबारियों को लिया। क्रिकेट का तत्व कहीं हल्का पड़ा, तो इन सेलेब्रिटियों के चेहरे काम आएंगे। चीयरलीडर्स भी लाई गई। अमेरिका के एनबीए व बेसबॉल की व्यावसायिक लोकप्रियता से काफी प्रभावित ललित मोदी ने पूंजी बटोरने के सारे तत्व वहां से लिए। मल्टीप्लेक्स आपकी जेब कब खाली कर देते हैं? और कैसे कर देते हैं? आप सोचते ही रह जाते हैं। पर इनका मुनाफा कमाने का समीकरण ही ऐसा है।

आईपीएल का सामाजिक विश्लेषण जरूरी है। लोगों से ऐसा करने की कुछ उम्मीद है। कितनी बड़ी विडंबना है कि राजस्थान के सवाईमाधोपुर में एक सूखे तालाब में पुल से गिरी बस में जो 26 युवा मारे गए, उनको या उनके बिलखते परिवारों को सहानुभूति देने वाला मौका क्या था? जरा देखिए। चीयरलीडर्स ठुमका रही थीं। स्टेडियम की जालियों के पीछे बैठी भीड़ तालियों से चौकों-छक्कों का स्वागत कर रही थी। चारों और उत्सव का सा माहौल था।

तो क्या हमें खुश होना चाहिए? कि देखो यार कितने भले लोग हैं राजस्थान रॉयल्स के। राजस्थान की माटी से जुड़े हुए हैं। दर्शकों को भी तो एक कारण चाहिए ना। एक ऐसा कारण जिसके बूते वह अपनी क्रिकेट टीम के इस कदम को रोमेंटिसाइज कर सके। इस मैच में उतरे खिलाडिय़ों के बाजू से बहती भावनाओं से फिल्मी फंतासी गढऩे में दर्शकों को खूब मजा भी तो आता होगा ना। पूंजी के इस महाखेल को कभी कर्मयुद्ध तो कभी धर्मयुद्ध करार दिया जाता है। क्या मजाक है?

एक आईपीएल के विज्ञापन का जिक्र किया गया था, जिसमें एक लाल चटाई पूरे देश को पिरोती हुई गुजरती है। बता दूं कि वह विज्ञापन भी मौलिक नहीं था। उसकी संकल्पना तो चुराई गई ही थी, मगर बड़ी बेशर्मी से कुछ दृश्य भी मार लिए गए।

तो कहना यही है कि पूंजी का खेल है। समाज में कुछ चीजों को बड़ी ही चतुराई से प्रवेश कराया जा रहा है। एक किस्म की संस्कृति विकसित की जा रही। पूरा का पूरा मर्चेंडाइज फ्रैंचाइजी खड़ा हो रहा है, होगा भी। पटकथाएं लिखी जानी है। दर्शकों के खाने-पीने के सामान के लिए स्टेडियमों में महंगे टेंडर उठेंगे। परदे के पीछे और मेजों के नीचे नोट दिए जाएंगे। कुछ विशेष चीजें कूल होंगी, कुछ विशेष चीजें हॉट होंगी। बाकी सब को औसत होने पर कौसा जाएगा। बहुत कुछ होगा। बस जिस भावना से तुमने इस वाकये को देखा है, वही भावना इस शोक की घड़ी का इस्तेमाल करने वालों में नहीं होगी।

('हार कर भी जीते राजस्थानी रॉयल्स ' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। http://khel-khelmein.blogspot.com/2010/03/blog-post_16.html )

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday, 15 March 2010

'पुरूषवादी गंदली काई में चंडियां'

('नारी तूं नारायणी' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। www.discussiondarbar.blogspot.com )

हैं, कुछ बातें सही हैं। कहने का तरीका आक्रामक और बेपरवाह किस्म का है। कुछ फ्रस्ट्रेशन भी है। बहुत सी बातें खारिज करने लायक हैं। पुरूषवादी मानसिकता साफ झलकती हैं। साफ लगता है कि मनन करने की आदत नहीं है। विचारों को कॉपी-पेस्ट करने में यकीन करते हो। यहां से पढ़ा, वहां लिखा। यहां से सुना, मानकर वहां कहा। इस तरह से। यह रोग युवाओं में बड़े पैमाने पर लगा है। और युवाओं में ही क्यों, समाज में जन्मने वाले शिशु से लेकर अर्थी में लेटने वाले बूढ़े तक सभी तो उम्र भर अपने भेजे को सुलाए ही रखते हैं। शिक्षा ही ऐसी है, क्या करें? अपनी सोच विकसित करने, नए प्रयोग करने, ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने और अभिनव प्रयोग करने को तो इन समाजों में हतोत्साहित ही किया जाता है।

पंचायतों में सच है कि सरपंच महिलाओं के पति ही असली सरपंच हैं। पर इसी बहाने वह औरत घर से बाहर तो आई। मसलन, राजस्थान की एक छोटी जगह, एक छोटे से गांव, एक पिछड़े गांव में एक ऐसी लड़की सरपंच है, जो लेडी श्रीराम कॉलेज दिल्ली में पढ़ी है। अंग्रेजी में पढ़ी-लिखी है (यह उदाहरण इस लिए कि एक समाज के रूप में हम अंग्रेजी बोलने वाले को सफलता का पर्याय मानते हैं।) जींस और शर्ट पहनती है। घोड़े की सवारी करती है। और यह सरपंच लड़की हर वो काम करती है, जो एक पुरूष सरपंच नहीं कर पाता।

तो यह लड़की सरपंच क्यों बनी? इसके मन में ये ख्याल भी कैसे आया? वह डुंगरपुर की महिला कलेक्टर (संभवत: अंजू) की तरह कलेक्टरी करके लोगों की सेवा और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के काम से जुड़ सकती थी। बहुराष्ट्रीय कंपनी में करोड़ के पैकेज पर नौकरी कर सकती थी। सवाल यह भी है कि आज से पहले कितनी लड़कियां एलएसआर से आई हैं। यानी सरपंचाई में औरतों को मुखरता मिलने से पहले ऐसे मामले कितने थे। चक्कर यह है कि पुरुषों की मूछों के बाल नीचे जो हो जाते हैं, इसलिए उनका सारा ध्यान महिलाओं को उनके साथ एक ही जाजम पर नहीं बैठने देने का होता है।

आरक्षण का जहां तक सवाल है, तो वह मिलना ही चाहिए। क्यों नहीं मिले? सदियों तक चूल्हे में फूंकनी मारते-मारते अपनी सांसें जला बैठी औरतों की कौम को जानबूझकर पीछे रखे जाने का मुआवजा तो देना ही होगा। शराबी पति की गालियां सुनती, मुहल्ले भर के सामने मानमर्दन झेलती, सास की प्रताडऩा से तिल-तिल मौत मरती, अपने जिस्म को ढांपती (पुरूष को अपनी कमर के नीचे के हिस्से को खुजाते हमेशा देखा गया, क्योंकि उसे खुजली होती है। अगर एक महिला अपने किसी भी अंग को खुजाए तो यह सैक्स के लिए आमंत्रण बन जाता है। क्या व्यंग्य है? क्या बकवास है।) और अबला होने का संताप लिए मर जाती नारी को नारायणी कह देने से ही कुछ नहीं होता है। पुरूष का शादी से पहले दसों को नीचे से निकाल देना दोस्तों के बीच हांकने वाला अचीवमेंट होता है। पत्नी के शादी से पहले संबंध रहे हों, तो इन्फोसिस में काम करने वाला भी आत्महत्या कर लेता है। बेअक्ल।

आरक्षण गांव की औरतों के लिए वरदान ही तो है। कलेक्टर, जिला अधिकारी, पुलिस अधिकारी, चुनाव अधिकारी, नरेगा, आरटीआई, निर्माण कार्य, फंड, बैठकें, सार्वजनिक सुनवाइयां, लोगों से मुलाकातें और एक सरपंचनुमा पदवी (बाकियों की भाषा में डेजिगनेशन) के साथ जीना कैसे होता है? यह जानना क्या व्यर्थ है? नहीं यह बड़ा पुरस्कार है, बड़ी हसल है। संसद में आरक्षण के लिए देश को अस्थिर कर देने वाले महिला आरक्षण से डर रहे हैं। हालांकि इस पर कई बातें हो सकती हैं। यही आखिरी सत्य नहीं है। दूर-दराज के सामाजिक जंगल में सदियों में जमी पुरूषवादी गंदली काई को घिस-घिस कर हटाने के लिए तेजाब चाहिए। और आरक्षण तो सिर्फ बर्तन धोने वाली साबुन और ब्रश है। फिर भी यह काम करेगा।

जन्म देने वाली मां को बस में भारी भीड़ में सबसे धक्के खाते देखना दिलचस्प होगा न? कोई उसे बैठने के लिए सीट दे या न दे? क्या फर्क पड़ता होगा ना? औरतों को कुछ विशेष देने की क्या जरूरत है? क्यों? तुम्हारी बहन अगर आगे बढ़े तो कैसा लगेगा? अगर पुराने विचारों से लैस नहीं हो तो बताना।

बात इतनी सी है कि कभी-कभी अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर सोचना पड़ता है। इसने सालों से दिमाग पर जो पूर्वाग्रहों की परत जमी है, उसे हटा पाना दु:खदायी अभ्यास है। हर किसी के बस में नहीं है। ये ऐरे-गेरे हमारे जैसे औसत लड़के सलवार-कमीज-चुन्नी में चोटी गूंथ कर जा रही कस्बाई लड़की को तो छेड़ेंगे, उस पर फिकरे कसेंगे। मगर मल्लिका सहरावत जैसी बोल्ड लड़की के सामने दुम दबा लेंगे। उससे बात भी नहीं कर पाएंगे। कई चंडियां ऐसी हैं, जिनके आगे नहीं पसरने के अलावा इन मर्दों के सामने चारा नहीं।

गजेन्द्र सिंह भाटी