Wednesday, 23 December 2009

Beautiful, special and ancient yet dying : The village of Majuli


Since 1991, over 35 villages have been washed away. It is being assumed that after two decades or so, the epicenter of the Assamese art and culture, the largest freshwater island in South Asia, the island of Majuli will cease to exist.

MAJULI – THE THREAT
Majuli is cited as the largest river island in the world but actually it is the largest freshwater island in South Asia, formed as the Brahmaputra branches out into two, between the districts of Dibrugarh and Lakhimpur, before joining again downstream. The total area of the island prior to 1950 was 1256 sq. kilometers. But now, later the area stands at 514 sq. kilometers (according to the latest Government record). A few months back when our Prime Minister was on his visit to Jorhat, a place in Assam, he expressed his desire to visit the famous island. But, he could not make it to the island. The reason – there was no dry land where his helicopter could land. Plus he could not even take an aerial view of the island as the weather was bad.

There is a serious threat to this island. It is the epicenter of the Assamese art and culture. Sociologists have stressed time and again on the preservation of these unique people, whose culture and dance forms are untouched by modernism. The island is the home to the neo-Vaishnavite culture, initiated around 15th century by the Assamese saint Srimanta Sankardev and his disciple Madhabdeva. The island is full of "satras" or monasteries. The famous "Ras Lila" which depicts the live of Lord Krishna is celebrated here. The Satriya dance and music originates from here. The Mishing, a tribal community is also one of the vibrant ethnic groups of the island. As the island is cut off from its mainland by the Brahmaputra, it is also claimed to be an organic area. It is said that the farmers there never used any chemical fertilizers in their farming. All these and more has made the island of Majuli famous. But it is in the verge of extinction.

The mighty Brahmaputra which created this island is starting to pose a threat to its creation. Prevention of floods and erosions could not be prevented due to the river itself. Says, Bharat Narah, Assam’s former minister for water resources, "The soil is soft and technically too young to hold any major structure. Moreover, silt and sedimentation in the river is so high that it is difficult to keep track of the water’s currents and channels."

The island is under threat due to extensive soil erosion on its banks . Since 1991, over 35 villages have been washed away. It is being assumed that after two decades or so, the island will cease to exist. The causes of erosion and flooding in Majuli are numerous. The situation started deteriorating after the 1950s earthquake which raised the bed of the mighty Brahmaputra. The high sediment load of the river due to massive silt formation has led to the braiding of the channels. But it is really unfortunate that both the Central and the State governments have failed to realize the gravity of the problem and have done nothing to save the island. Various other organizations have come forward to help it but that is not enough. To really solve the problem there needs to be a " strong political will ". The people of Majuli can only hope that one day the government will finally pay heed to their plight.

Mercy Barkakoty
(Mercy is a Journalist based in Delhi. She did her English Journalism from Indian Institute Of Mass Communication (IIMC, New Delhi). At present she is working in a prestigious Publication House in Delhi. Having a good experience of working with various NGO's specifically in North-East, She loves her motherland and takes great pride in writing about issues pertaining to North-Eastern part of India.)

Thursday, 3 December 2009

'पैसा-पैसा और मर्दों की गोरा होने वाली क्रीम'

'वह 1978 का बरस था। मैं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से दिल्ली आया था। यहां औखला इंडस्ट्रियल एरिया में बल्ब बनाने की एक फैक्ट्री में काम करने लगा। कुछ साल बाद नौकरी छोड़ कर यहीं पर चाय-तंबाकू की एक दुकान खोल ली। ' कहते हुए रामलखन के चेहरे पर पूरी आत्मीयता झलक रही है। चाय बनाने और यहां-वहां लोगों को चाय की गिलास पकड़ाने की व्यस्तता में भी वह पूरे धैर्य से मेरे सवालों के जवाब दे रहा है। करीब 45-50 का लगने वाला रामलखन आगे कहता है, ' उस वक्त मुझे 140 रुपये महीना मिलते थे। और , उसमें मैं बहुत ही खुश रहता था। आज यहां 20,000 रुपये महीना पाने वाले लोग चाय पीने आते है, तो भी उनके चेहरे पर वह खुशी नहीं नज़र आती ' रामलखन बताता है कि यहां खाना खाने के लिए तब एक चावला होटल था। आज भी है। वह कहता है, 'तब दो रुपये में मैं भरपेट अच्छा खाना खाता था। मगर वह वक्त बदल गया। ......जब इंदिरा गांधी मरी तो दिल्ली में पालक 20 रुपये किलो बिका। ' मैंने पूछा कि उससे पहले पालक क्या भाव था? उसका जवाब आता है ....यही कोई 2-3 रुपये किलो।

एक बार गूगल पर डीटीसी यानी दिल्ली परिवहन निगम के बारे में कुछ ढूंढ रहा था। उस वक्त यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि इसकी रिंग रोड़ सेवा सिर्फ 10 रुपये में विश्व के सबसे लंबे रुटों में एक रिंग रोड़ का चक्कर लगाने वाली अकेली सेवा है। इतनी सस्ती सुविधा दुनिया में और कहीं नहीं थी। संभवत: अब भी नहीं होगी। कुछ वक्त पहले इसकी टिकट दरें बढ़ी। 5, 10 और 15 रुपये की नई दरों पर पहले दिन बसों में खूब हो-हल्ला हुआ। बिहार मूल के मेरे मित्र आशीष प्रभात मिश्रा एक कारोबारी अखबार में नौकरी करते हैं। पहले जहां 5-5 रुपये में दो बसें बदल कर आशीष अपने बसेरे पहुंच जाते थे, आज वह दर 10-10 रुपये हो गई है। दरें बढऩे पर उन्हें मीडिया और स्थानीय नेताओं के रवैये पर बहुत दुख हुआ। उनका कहना था,' ऐसा लगता है, दिल्ली के नेताओं को फिर से चुनाव में खड़ा नहीं होना है। अगर ऐसा नहीं होता, तो बिना सार्वजनिक संवाद और सलाह के सार्वजनिक परिवहन को यूं गरीब की पहुंच से परे नहीं किया जाता। ' मीडिया पर बरबस फट पड़ते आशीष कहते हैं,' अखबार वालों ने इस मुद्दे पर उस गरीब का साथ देना गवारा नहीं समझा, जिसकी जेब में महंगाई ने वैसे ही डाका डाल रखा है। दाल की कीमतें 100 रुपये से jyada हैं। वह दाल जो सबसे कमतर और गरीबों का भोजन मानी जाती है। अखबारों में कोई आलोचनात्मक खबर नहीं है। ' आशीष कहते हैं,' देख रहे हैं.... कमजोर विपक्ष होने से क्या होता है? '

गूगल की घोषणा भी तो आई है। अब से संभवत: गूगल पर खबरें पढऩे के लिए लोगों को प्रति खबर पैसे चुकाने होंगे। पानी, मिट्टी, हवा, अक्षर, पेड़, खून, इज्जत, शक्ति, सुविधा, चिता की लकडिय़ां, भगवान और अब गूगल.....क्या रह गया है, जो बिन पैसे अब मिलता हो? और फिर अक्षय कुमार भी तो हिप-हाप अंदाज में नाचते हुए कटरीना से कहते हैं, 'पैसा-पैसा करती है, तू पैसे पे क्यों मरती है। क्या रक्खा है पैसे, में पैसे की लगा दूं ढेरी...। मैं बारिश कर दूं, पैसे की, जो तू हो जाए मेरी। '

जाहिर है, कटरीना तो उनकी हो ही जाएगी। लाल किले के पास से बदरपुर बार्डर की ओर लौट रहा था, कि बगल में बैठे बंगाली मूल के एक भाई से बातें हुई। बिल्कुल अलग ही सवाल करने के अंदाज में उसने पूछा, 'आप कहां के रहने वाले हैं? ' मैंने कहा राजस्थान का। उसने फिर पूछा, 'वहां आटा क्या भाव मिलता है? ' मैंने कहा, यही कोई 14-15 रुपये किलो। उसने कहा, '..और दिल्ली में... दिल्ली में 20 रुपये से नीचे खाने को आटा नहीं मिलता है। बस का भाड़ा बढ़ गया है। दाल भी खा नहीं सकते हैं। यहां की सरकार गरीब को बस जीने ही नहीं देना चाहती है। बंगाल में ऐसा कभी नहीं होता। अगर ये मंहगाई और भाड़े में बढ़ोतरी बंगाल में हुई होती तो लोग सरकार की हालत खराब कर देते। ' पूछने पर उस भाई ने बताया कि उसे दिल्ली में आए हुए करीब 13-14 साल हो गए हैं। यहां वह भोगल में रहता है। उसके जैसी प्रतिक्रिया वाले दिल्ली में बहुत से और हैं।

भाड़ा बढऩे के 2-3 दिन बाद की बात है। मैं आंनद विहार से काले खां आईएसबीटी आ रहा था। बस हर स्टैंड के बाद खचाखच भरती जा रही थी। भीड़ भरी बस में एक आदमी अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ चढ़ा। दिल्ली के दानवाकार महानगर होने से घबराया और कुछ सहमा यह आदमी जैसे-तैसे बस में अपने परिवार को चढ़ा पाया। अपनी कर्कश आवाज और बुरेव्यवहार के साथ कंडक्टर आया। आदमी ने कंडक्टर को दस रुपये का नोट देते हुए दो टिकट मांगी। पता नहीं उस वक्त उस पर क्या बीती होगी, जब कंडक्टर ने कहा, '10 नहीं 30 रुपये निकाल। ' अब बाकी सभी के लिए 30 रुपये जायज नजर आते हो, मगर उस आदमी ने तो यह सोचा ही कि दस रुपये में वह अपनी बीवी और बच्चों के साथ सफर पूरा कर लेगा। उसका दिल बैठ गया। जेब के किस कोने से न जाने उसने 20 रुपये निकाल कर दे दिए। इसके बाद मालूम नहीं उसके पास और कुछ बचा भी था....... या नहीं?

आईटीओ, पुरानी दिल्ली, प्रगति मैदान, आईएसबीटी और मैट्रो जैसे शहर में कई बिंदु है, जहां तरह-तरह के फुटकर सामान के साथ ठेले वाले खड़े रहते हैं। नमकीन, पानी, चाय, मूंगफली, शकरकंद और रूमाल बेचते इन लोगों को एक-एक, दो-दो रुपये से ज्यादा का मार्जिन नहीं मिलता है। अब एक साथ 10-15 रुपये तक बढ़ रही सार्वजनिक सुविधाओं और महंगी होती चीजों का जवाब भला वह अपने एक-दो रुपये के मार्जिन से कैसे देगा। फिर ये बाद तो भूल ही जाइए कि कभी उसकी बेटी या बेटा कॉनवेंट स्कूल में जाएगा। ब्रांडेड कपड़े और जूते पहनेगा। बोतलबंद पानी पिएगा। गाड़ी में घूमेगा। वह तो बस अपने पिता की ही तरह चिलचिलाती धूप के नीचे अपने भाग्य की तरह काला होता जाएगा। और काला रंग भी तो समाज में स्वीकार्य नहीं है ना। 'ट्रैफिक सिग्नल ' के उस भीख मांगने वाले सांवले बच्चे की तरह हो सकता है वह भी 'मर्दों वाली गोरा होने की क्रीम लगाकर ' अपने तय भाग्य को बदलने की कोशिश करे।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Tuesday, 9 June 2009

छमा....

छमा प्रार्थी हूँ।
महीनों से कुछ लिख नही पाया हूँ ।
कुछ वक्त और नही लिख पाउँगा।
स्नेह .... शुभाषीश... ।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Friday, 13 March 2009

नागौर किले के सामने का चांदनी चौक

( जब पता चला कि नागौर में दो दिन का सूफी संगीत का एक बड़ा आयोजन होने वाला है। मैं अपने संस्थान से समय चुरा कर दो दिन के लिए राजस्थान आया। ख़ुद को रोक ही नहीं पाया। नागौर किले में ' सूफी दरबार ' का यह दूसरा साल था। इसमें ईरान, अफ्रीका, ईजिप्ट, कश्मीर, पंजाब, हैदराबाद और जयपुर समेत राजस्थान से ख्यात सूफ़ी फ़नकार शिरकत करने वाले थे।

चंद धनी पर्यटकों और 1000 रूपये की टिकिट खरीद सकने वाले कुछ आला रईसों की पहुँच ही इस सूफ़ीयाना मौसिकी तक थी। मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट के कर्ताधर्ता जोधपुर के महाराज गज सिंह जी, उनकी रानी, पुत्री राजकुमारी नंदिनी, भाई महाराज दिलीप सिंह, राजकुमार शिवराज सिंह, महेश बाबू और राजघराने के दूसरे सदस्य इसके आयोजन में शामिल थे। ब्रिटेन का हेलन हेमलिन ट्रस्ट और बनियन ट्री भी प्रायोजन में शामिल था। 31 जनवरी और 1 फरवरी को शाम 7 से 10 बजे तक नागौर के अहिछ्त्रगढ़ किले में यह महफ़िल सजनी थी।

अपने पिता की बदौलत मुझे भी रूमानियत और सूफ़ियत को देख -सुन -महसूस कर पाने का मौका मिलने वाला था। नागौर किले तक पहुँचने से लेकर सूफ़ी दरबार की आखिरी पेशकश तक मैंने क्या अनुभव किया ......हाज़िर है।
)



31 जनवरी 2009 , शाम 7 बजकर 05 मिनट
'मैं नागौर किले के सामने खड़ा इस इंतज़ार में हूँ कि एक परिचित सज्जन आए और मुझे अन्दर जाने की अनुमति दिलवा दें

" सदियों पुराने नागौर के अहिछ्त्रगढ़ किले का मुख्य दरवाज़ा ...सामने जीता-जागता भरा हुआ मैदान .....चारों तरफ़ बिख़री दुकानें , ठेले .......यहाँ-वहाँ बेतरतीब खड़ी गाड़ियाँ, स्कूटर, मोटरसाईकिलें, साईकिलें और फ़िज़ा में घुलती देस की इन गलियों में लिपटी धूल की महकीली गंध । "

कई गाय और बछिया तसल्ली से घूम रही हैं। एक गधा सामने से गुज़र रहा है। काठ की गाड़ी पर लकड़ी की प्लाई और बनियान में बैठे अपने मालिक को बिठाए।

किले के दरवाजे के एक ओर सामने कचरे का बदबूदार लोह ढाँचा रखा है । नगरपरिषद ने रखा होगा शायद .....सफाई व्यवस्था बनाए रखने को , मगर उड़-उड़कर नाक में आती इस सड़न को कैसे कैद किया जाए ।

पास ही में सफ़ेद मूर्ति में ढले गाँधी जी खड़े हैं। गले में मालाएँ हैं ...गैंदे के फूल की । आस-पास उड़ती धूल है, गाड़ियों का धुँआ है, और बदबू है। इस बसावट को गाँधी चौक कहते हैं। नागौर के सरकारी बस स्टैंड से आप यहाँ टेंपो या कहें तो ऑटो में बैठ कर पहुँच सकते हैं। सिर्फ़ तीन रुपये में.... ।

ज्यूस की दुकान में काम करने वाला 19-20 साल का एक लड़का झाड़ू निकाल रहा है । अपने दायरे के कचरे को सड़क के बीचों-बीच डाल रहा है। यहाँ कोई दायरा सड़क की हद के लिए तय नहीं है। जितना भाग छूट जाए ...चलने को ...वही सड़क है।

दिल्ली-६ के चाँदनी चौक की बात होती है । देश के भीतर घुसिए आपको कई चाँदनी-चौक नज़र आएँगे ।

इस गाँधी चौक के एक और 1956 में स्थानीय पत्थरों बना श्री नागौर पुस्तकालय है। सैयद सैफुद्दीन जिलानी रोड़ की तख्ती लगा दरवाजा है। इसके नीचे से गुजरती शाही ऐतिहासिक रोड़ आज एक संकरी लोकतान्त्रिक गली में तब्दील हो चुकी है। मेले का सा माहौल है।

नागौर सूफी दरबार कोंसर्ट होने को है। किले के कर्मचारी इस मुख्य दरवाजे के आगे चहल-कदमी कर रहे हैं। बातें कर रहे हैं।

पास में ही पुलिस चौकी है। लेकिन आज पुलिस की विशेष व्यवस्था है। बड़ी-बड़ी चमक-दमक से भरी गाड़ियों में बड़े और इज्ज़तदार लोग किले में प्रवेश कर रहे हैं। मैं बाहर खड़ा हूँ ......क्योंकि मैं बड़ा और इज्ज़तदार नहीं हूँ।

( जारी ....)

गजेन्द्र सिंह भाटी


Wednesday, 4 March 2009

गाँवों में इंसान अभी इंसान ही है ...

( राजस्थान के नागौर-जोधपुर सड़क मार्ग को जाते समय रास्ते एक छोटा सा तिराहा आता है। इसे गोगेलाव कहते हैं। यहाँ आबादी बहुत कम है। अपने ननिहाल पांचौडी को जाते हुए , मैं यहाँ बस का इंतज़ार कर रहा था। दिल्ली से 2-3 दिन की छुट्टी लेकर अपने नानोसा के देहांत के कुछ ही दिनों बाद पहली बार अपनी नानीसा से मिलने और शोक बाँटने जा रहा था। यहाँ गोगेलाव में बैठकर मैंने देखा कि ......)


30 दिसम्बर 2008, दो पहर के 3 बजकर 12 मिनट

" यहाँ गाँवों में इंसान अभी इंसान ही है .........मशीन नहीं बना। जिंदगी की रफ़्तार धीमी और चुस्त है। दिन यहाँ बड़े होते हैं ...और रातें भी बड़ी ।

तीन बुजुर्ग बैठे बी पी यानि ब्लड प्रेशर और मोबाइल पर बातें कर रहे हैं। इस पर कि इन उपकरणों का उनके जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव क्या है ? बड़े शहरों के बच्चों को अगर इनकी बातें सुनाई दे तो ये वृद्ध उन्हें कनिष्ठ यानि इन्फिरिअर नज़र आयेंगे। शहरी बच्चे बेपरवाह होकर हँसेगें । यहाँ गोगेलाव स्टैंड से गुजरने वाली बसों के आने-जाने के समय में हुआ बदलाव , इनके बात करने से पता चल गया।

चारों ओर सुकून है। सुरक्षा का वातावरण है । किसी को कोई अफसोस नहीं है । पास में ग्राम पंचायत का नागौरी पत्थरों से बना ऑफिस है । एक-दो कमरों के इस पंचायत भवन पर छोटे आकार में मिनी सचिवालय लिखा है । यही कमरा सार्वजनिक पुस्तकालय भी है ।

सामने श्री श्री राधे प्रजापति मन्दिर है । पास से गुजरता राष्ट्रीय राजमार्ग शहरी गाड़ियों की आवाजाही से दमक रहा है । मगर महँगी गाडियाँ गुजारती ये सड़क परित्यक्ता सी लगती है।

अभी-अभी एक भोला-भाला युवक पचास ग्राम मोटे भुजिया एक अख़बार के टुकड़े पर लेकर खाने बैठा है । पिज्ज़ा-बर्गर का स्वाद इस युवक के लिए अभी गैर-जरुरी है । एक-एक कर के, धीरे-धीरे वह ब्रह्म सुखी एक भुजिया उठाता है और धीरे ही खाता है। ताकि जल्दी खत्म न हो । और खाली पेट को कुछ भरावट का एहसास हो ।"

गाँवों और उनके बारे में ऐसी बातें फिर कभी ........

गजेन्द्र सिंह भाटी