Thursday 3 December, 2009

'पैसा-पैसा और मर्दों की गोरा होने वाली क्रीम'

'वह 1978 का बरस था। मैं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से दिल्ली आया था। यहां औखला इंडस्ट्रियल एरिया में बल्ब बनाने की एक फैक्ट्री में काम करने लगा। कुछ साल बाद नौकरी छोड़ कर यहीं पर चाय-तंबाकू की एक दुकान खोल ली। ' कहते हुए रामलखन के चेहरे पर पूरी आत्मीयता झलक रही है। चाय बनाने और यहां-वहां लोगों को चाय की गिलास पकड़ाने की व्यस्तता में भी वह पूरे धैर्य से मेरे सवालों के जवाब दे रहा है। करीब 45-50 का लगने वाला रामलखन आगे कहता है, ' उस वक्त मुझे 140 रुपये महीना मिलते थे। और , उसमें मैं बहुत ही खुश रहता था। आज यहां 20,000 रुपये महीना पाने वाले लोग चाय पीने आते है, तो भी उनके चेहरे पर वह खुशी नहीं नज़र आती ' रामलखन बताता है कि यहां खाना खाने के लिए तब एक चावला होटल था। आज भी है। वह कहता है, 'तब दो रुपये में मैं भरपेट अच्छा खाना खाता था। मगर वह वक्त बदल गया। ......जब इंदिरा गांधी मरी तो दिल्ली में पालक 20 रुपये किलो बिका। ' मैंने पूछा कि उससे पहले पालक क्या भाव था? उसका जवाब आता है ....यही कोई 2-3 रुपये किलो।

एक बार गूगल पर डीटीसी यानी दिल्ली परिवहन निगम के बारे में कुछ ढूंढ रहा था। उस वक्त यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि इसकी रिंग रोड़ सेवा सिर्फ 10 रुपये में विश्व के सबसे लंबे रुटों में एक रिंग रोड़ का चक्कर लगाने वाली अकेली सेवा है। इतनी सस्ती सुविधा दुनिया में और कहीं नहीं थी। संभवत: अब भी नहीं होगी। कुछ वक्त पहले इसकी टिकट दरें बढ़ी। 5, 10 और 15 रुपये की नई दरों पर पहले दिन बसों में खूब हो-हल्ला हुआ। बिहार मूल के मेरे मित्र आशीष प्रभात मिश्रा एक कारोबारी अखबार में नौकरी करते हैं। पहले जहां 5-5 रुपये में दो बसें बदल कर आशीष अपने बसेरे पहुंच जाते थे, आज वह दर 10-10 रुपये हो गई है। दरें बढऩे पर उन्हें मीडिया और स्थानीय नेताओं के रवैये पर बहुत दुख हुआ। उनका कहना था,' ऐसा लगता है, दिल्ली के नेताओं को फिर से चुनाव में खड़ा नहीं होना है। अगर ऐसा नहीं होता, तो बिना सार्वजनिक संवाद और सलाह के सार्वजनिक परिवहन को यूं गरीब की पहुंच से परे नहीं किया जाता। ' मीडिया पर बरबस फट पड़ते आशीष कहते हैं,' अखबार वालों ने इस मुद्दे पर उस गरीब का साथ देना गवारा नहीं समझा, जिसकी जेब में महंगाई ने वैसे ही डाका डाल रखा है। दाल की कीमतें 100 रुपये से jyada हैं। वह दाल जो सबसे कमतर और गरीबों का भोजन मानी जाती है। अखबारों में कोई आलोचनात्मक खबर नहीं है। ' आशीष कहते हैं,' देख रहे हैं.... कमजोर विपक्ष होने से क्या होता है? '

गूगल की घोषणा भी तो आई है। अब से संभवत: गूगल पर खबरें पढऩे के लिए लोगों को प्रति खबर पैसे चुकाने होंगे। पानी, मिट्टी, हवा, अक्षर, पेड़, खून, इज्जत, शक्ति, सुविधा, चिता की लकडिय़ां, भगवान और अब गूगल.....क्या रह गया है, जो बिन पैसे अब मिलता हो? और फिर अक्षय कुमार भी तो हिप-हाप अंदाज में नाचते हुए कटरीना से कहते हैं, 'पैसा-पैसा करती है, तू पैसे पे क्यों मरती है। क्या रक्खा है पैसे, में पैसे की लगा दूं ढेरी...। मैं बारिश कर दूं, पैसे की, जो तू हो जाए मेरी। '

जाहिर है, कटरीना तो उनकी हो ही जाएगी। लाल किले के पास से बदरपुर बार्डर की ओर लौट रहा था, कि बगल में बैठे बंगाली मूल के एक भाई से बातें हुई। बिल्कुल अलग ही सवाल करने के अंदाज में उसने पूछा, 'आप कहां के रहने वाले हैं? ' मैंने कहा राजस्थान का। उसने फिर पूछा, 'वहां आटा क्या भाव मिलता है? ' मैंने कहा, यही कोई 14-15 रुपये किलो। उसने कहा, '..और दिल्ली में... दिल्ली में 20 रुपये से नीचे खाने को आटा नहीं मिलता है। बस का भाड़ा बढ़ गया है। दाल भी खा नहीं सकते हैं। यहां की सरकार गरीब को बस जीने ही नहीं देना चाहती है। बंगाल में ऐसा कभी नहीं होता। अगर ये मंहगाई और भाड़े में बढ़ोतरी बंगाल में हुई होती तो लोग सरकार की हालत खराब कर देते। ' पूछने पर उस भाई ने बताया कि उसे दिल्ली में आए हुए करीब 13-14 साल हो गए हैं। यहां वह भोगल में रहता है। उसके जैसी प्रतिक्रिया वाले दिल्ली में बहुत से और हैं।

भाड़ा बढऩे के 2-3 दिन बाद की बात है। मैं आंनद विहार से काले खां आईएसबीटी आ रहा था। बस हर स्टैंड के बाद खचाखच भरती जा रही थी। भीड़ भरी बस में एक आदमी अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ चढ़ा। दिल्ली के दानवाकार महानगर होने से घबराया और कुछ सहमा यह आदमी जैसे-तैसे बस में अपने परिवार को चढ़ा पाया। अपनी कर्कश आवाज और बुरेव्यवहार के साथ कंडक्टर आया। आदमी ने कंडक्टर को दस रुपये का नोट देते हुए दो टिकट मांगी। पता नहीं उस वक्त उस पर क्या बीती होगी, जब कंडक्टर ने कहा, '10 नहीं 30 रुपये निकाल। ' अब बाकी सभी के लिए 30 रुपये जायज नजर आते हो, मगर उस आदमी ने तो यह सोचा ही कि दस रुपये में वह अपनी बीवी और बच्चों के साथ सफर पूरा कर लेगा। उसका दिल बैठ गया। जेब के किस कोने से न जाने उसने 20 रुपये निकाल कर दे दिए। इसके बाद मालूम नहीं उसके पास और कुछ बचा भी था....... या नहीं?

आईटीओ, पुरानी दिल्ली, प्रगति मैदान, आईएसबीटी और मैट्रो जैसे शहर में कई बिंदु है, जहां तरह-तरह के फुटकर सामान के साथ ठेले वाले खड़े रहते हैं। नमकीन, पानी, चाय, मूंगफली, शकरकंद और रूमाल बेचते इन लोगों को एक-एक, दो-दो रुपये से ज्यादा का मार्जिन नहीं मिलता है। अब एक साथ 10-15 रुपये तक बढ़ रही सार्वजनिक सुविधाओं और महंगी होती चीजों का जवाब भला वह अपने एक-दो रुपये के मार्जिन से कैसे देगा। फिर ये बाद तो भूल ही जाइए कि कभी उसकी बेटी या बेटा कॉनवेंट स्कूल में जाएगा। ब्रांडेड कपड़े और जूते पहनेगा। बोतलबंद पानी पिएगा। गाड़ी में घूमेगा। वह तो बस अपने पिता की ही तरह चिलचिलाती धूप के नीचे अपने भाग्य की तरह काला होता जाएगा। और काला रंग भी तो समाज में स्वीकार्य नहीं है ना। 'ट्रैफिक सिग्नल ' के उस भीख मांगने वाले सांवले बच्चे की तरह हो सकता है वह भी 'मर्दों वाली गोरा होने की क्रीम लगाकर ' अपने तय भाग्य को बदलने की कोशिश करे।

गजेन्द्र सिंह भाटी

12 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मेरी रचनाएँ !!!!!!!!!



आपकी यह पोस्ट दिल को छू गई....... बहुत सुंदर और भानात्मक रूप से लिखा है आपने...... अंतर्मन को छू गई..... यह पोस्ट.........

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

महफूज अली साब....

आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया के लिए अपार धन्यवाद।
खुश रहिए।

आपका..
गजेन्द्र सिंह भाटी

Harshvardhan said...

लम्बे समय के बाद आपकी ख़ामोशी टूटी यह अच्छी बात है ... अपने आखर पर आपकी वापसी हुई ....नयी पोस्ट बहुत अच्छी लगी ....आपकी बातो को कहने की स्टाइल मुझको बहुत भाती है .....दिल्ली की याद दिला दी दोस्त......

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

Thank You Harsh,
It is always a pleasure to get the word from you.

your
Gajendra ...

sukh sagar said...
This comment has been removed by the author.
sukh sagar said...

post kafi acha laga,well done.......but dear,ye inflation kabhi nahi rukegi...yaha kabhi na rukne wala ek process hai....jaise ki indra gandhi k bachpan k samay me yahi palak 2-3 paise ka mil raha hoga but jab wo PM bani to 2-3 rupey ho gaya.........kya wo wapas 2-3 paise me kar pai...........

sukh sagar
lucknow
http://discussiondarbar.blogspot.com/

विजय प्रताप said...

गजेन्द्र बहुत ही खूबसूरती से गहरी चोट की है. एक बात बुरी भी लगी. चाय बेचने वाले व्यक्ति सम्मान के हकदार हैं. बस इसका ध्यान रखे.

www.naipirhi.blogspot.com

Unknown said...

First thing first, its genuinely a nicely written post revolving around inflation...good thing about this is that as you read this post it seems that the writer means every word of it, which is not usually the case these days.
It is well supported by statements which are used very wisely and successfully brings out the changes in present and past situations. It keeps your interest alive all the way to the end which doesn't allow you to take your eyes off till you completely read it. I am glad you also touched the curent issue of rise in bus ticket prices which has contributed to the every day struggle for survival by lower middle class or a middle class person... Kya baat gajju!!

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

To Ujjwal...

What can I say?
I mean you found some time out and commented on the post, it was really encouraging.

It was by far one of the best comments I have ever received.

thanks Once again..
I will be blessed if you do not stop commenting..

Love..
Your Brother

Parveen Kr Dogra said...

really a great piece of writing!!!

Unknown said...

दोस्त गजेंद्र,
हमारे दौर का सबसे बड़ा हासिल(नुकसान)यही है। हम बदलावों की बात जिस मंच पर उठा रहे हैं वही हमें निकम्मा बनाने की बड़ी वजह भी बन चुका है। इस पर आवाज उठाकर, अलसाये बौद्धिक जगत(?)में हलचल कर हम अपने कर्तव्य की इति श्री मान लेते हैं। आज कहां वो आंदोलन देखने को मिलते हैं जब कोलकाता की ट्राम के किराये में एक पैसे की बढ़ोत्तरी के खिलाफ लोग सड़कों पर आ गये थे। दूसरी बात, आप जैसे लोगों को भी कॉनवेंट में पढ़ना, ब्रांडेड कपड़े और जूते पहनना, गाड़ी में घूमना, बोतलबंद पनी पीना ही बेहतर जिंदगी बिताने का तरीका क्यों लगता है..क्या अमीर हो जाना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है..
तीसरी बात आपको पैसे की महिमा का बखान करने के लिए बॉलीवुड के घटिया गाने का उदाहरण देने की क्यों सूझी..गाना भी आपने वह चुना जिसमें महिलाओं के प्रति इतनी हिंसा और पूर्वाग्रह भरा पड़ा है। क्या महिलाएं ही पैसे की ढ़ेरी लगाने की बात करती हैं..
अंतिम मगर महत्वपूर्ण बात आपने काले शब्द का बहुत ही वीभत्स प्रयोग किया है। आप बात करते हैं कि समाज में काला रंग स्वीकार्य नहीं है और ऐसे मुहावरे गढ़कर(भाग्य की तरह काला होना)अपने भीतर छुपे इस रंग के प्रति पूर्वाग्रह की झलक भी दे जाते हैं। जबकि आप जानते हैं भाग्य कोई भी दूसरी दुनिया से लिखवा कर नहीं आता।

kalpana lok said...

किसे मुद्दे को कितने अच्छे तरीके से पेश किया जाता है, गजेन्द्र से वो सिखा जा सकता है...... वास्तव में आज भी मेरे मन में इन सब चीजो के लिए उतना ही रोष है....बढ़िया लेख ... इसे तरह आगे भी जन सेजुडी हुई बाते लिखो ...सुभकामना