Tuesday 25 January, 2011

पंडित भीमसेन चले गए...

(लिखा तो अपने लिए ही था। पर अपनी निजी डायरी के पन्नों में से ये यादें बांट रहा हूं।)

ये कुछ ऐसी ही फीलिंग थी। उस वक्त भी, जब अमरीश पुरी के देहांत की खबर पहले-पहल सुनी। यकीन नहीं हुआ। न जाने क्यों हिंदी फिल्मों के इस बेहद बुरे इंसान के साथ लगाव सा महसूस कर रहा था। शायद 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के बाउजी के तौर पर जो चांटा उन्होंने राज के गाल पर क्लाइमैक्स से कुछ पहले मारा था, वो कई तरह की यादें सिनेमा की मुझे दे गया। अगर ये चांटा न होता तो इस फिल्म की इंटेसिटी आखिर में जाकर ढीली हो जाती। मैं ये भी समझता हूं कि अगर शाहरुख खान को अपनी फिल्मों में अमरीश पुरी की जगह किसी और खलनायक का साथ मिलता तो आज वो इतने लोकप्रिय कलाकार नहीं बन पाते। अमरीश फिल्मों में इतनी विश्वसनीयता से बुरे बन जाते थे कि उनके खिलाफ खड़ा हीरो, अच्छा लगता था। अगर वो न होते तो आज शाहरुख शाहरुख न होते।

तो जो कष्ट मेरी आत्मा को उस दिन हुआ जब अमरीश पुरी गए, वो ही आज हुआ जब पंडित भीमसेन जोशी भी ले गए। न तो मैं कभी अमरीश पुरी से मिला था, न कभी भीमसेन जोशी से। पर न जाने क्या है कि छब्बीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मीडिया के अलग-अलग माध्यमों ने इन दोनों की जो इमेज मेरे मन में धीरे-धीरे बनाई, या मेरी खुद की लोगों को दूर से देख-पढ़-सुन-सोच कर परखने की मशीनरी से जो इमेज बनी उससे मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि कुछ अनजानी खामियों या बुराइयों को छोड़ दूं तो इनके काम और सार्वजनिक व्यवहार वाली इमेज ने मेरे मन में इन्हें भले इंसानों के तौर पर स्थापित कर दिया। दोनों अलग-अलग माध्यमों और क्षमताओं वाले लोग रहे, एक करके देखना अजीब लग सकता है, पर मैं बात कर रहा हूं मेरे मन में उमड़-घुमड़ कर आ रहे रसायनों की। इन रसायनों की शक्ल और स्वाद, शरीर के दिमाग के भीतर लगभग एक सा है। इसका एक बहुत बड़ा कारण अमरीश और भीमसेन का काम और ईमानदार अनुशासित काम है। दोनों ने जो क्षेत्र चुने उनमें बहुत मेहनत की, जिंदगी भर ईमानदार और गंभीर बने रहे।

भीमसेन जोशी जब भी परफॉर्म करते दिखे तो अपने शास्रीय संगीत के साथ ही दिखे, कुछ भी और करते नहीं दिखे। बस क्रिकेट और कारों के अपने व्यक्तिगत शौक के अलावा। शायद मिले सुर मेरा तुम्हारा की छाप और उनके ऐतिहासिक आलाप लोकप्रिय उदाहरण है, ये देखने के कि इस काम में उनके जैसा दूसरा कोई नहीं था। था भी तो हम तक दुर्भाग्यवश पहुंच नहीं पाया। पंडित जी ने जो भी अपने पीछे छोड़ा है वो दिव्य है। दस वर्ष की उम्र से जो चीज इतने जज्बे से खुद से जोड़ी वो धीरे-धीरे बेजोड़ होती चली गई।

एक कारण ये भी है कि ये दोनों लोग या कहें यहां पर खासतौर पर पंडित भीमसेन जोशी सदाचारी लोग लगे। हो सकता है बहुत सी अच्छी-बुरी बातें पता नहीं है, पर ये भी एक तथ्य ही है कि अगर बुरी बातें हैं भी तो वो सार्वजनिक होकर मुझे कुछ बुरा नहीं सिखा गई। मैंने तो बस मिले सुर मेरा तुम्हारा और कुछ ऐसे आलाप सुने हैं, कुछ ऐसी शारीरिक भाव-भंगिमाएं देखी कि उनके तेज का वर्णन नहीं कर सकता हूं। वो बस मेरे भीतर महसूस कर रहा हूं जो सभी अलग-अलग तरीके से महसूस करते ही रहेंगे।

गम ये भी है कि उनसे मिला नहीं, शायद मेरे नसीब में ये भी एक बात लिखी है कि अपनी पसंद के जो कुछ एक लोग हैं वो दुनिया से चले जा रहे हैं और मैं उनसे मिल नहीं पा रहा हूं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साब चले गए। एक खूबसूरत इंसान। आप बस उनकी बातें सुनते ही रह जाएंगे। परफेक्ट थॉट्स। धर्म, समाज, संस्कृति, रिश्ते, पर्यावरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, आधुनिकीकरण, ग्लोबलाइजेशन, समाज में बढ़ती असंवेदनशीलता, अतिवाद, स्वतंत्रता, प्रेम.... न जाने कितने ऐसे ही विषय हैं जिनपर दर्जनों बहसें और एडिटोरियल हर साल देखते हैं, पढ़ते हैं पर सब बेकार ही साबित होते हैं। खां साब के इंटरव्यू देखें ...आपकी छाती में प्रेम उमड़ आता है, अपनत्व का सागर दिखता है... वो प्रेम का आभामंडल उनकी बातों में ऐसा लगता जैसे इनकी बातों को लागू करते रहो और एक शांत खूबसूरत समाज का निर्माण होता रहेगा। धार्मिक कट्टरवाद पर क्या उनके प्यारे और मजबूत जवाब होते, क्या बताऊं। खां साब में कुछ साधारण होना ही असाधारण हैं... का बड़ा तत्व छिपा हुआ था। ये कई बातें कहता था और कहता रहेगा। इतने बड़े कलाकार थे पर उनका माचों (खाट) पर बैठना, गली में घूमना, बगल के मंगला मईया के मंदिर में बैठकर गाना, अल्ला का आलाप लेकर कट्टरपंथियों को जवाब देना, भाइचारे को व्यावहारिक तौर पर जीकर दिखा जाना, वही कुर्ता-पायजामा पहनना, वही दाल-रोटी खाना। कद की बात करें तो इन्हीं साधारण गुणों के साथ लाल किले पर बुलाया जाना। आजादी की पहली शहनाई जो तब के बाद जन्म लेने वाले हर बच्चे की रग में भी खून के स्वर में बहती है.. खां साब ने ही बजाई थी। आज कोई गाली-गलौच भी करता है तो चार जगह बताता है कि मैं मुंहफट हूं।... अपने काम को बड़ा करना और जबां को खुद की तरह मीठा बनाकर साधारण बने रहना ये ही दिव्य गुण है। ईमानदार व्यक्तित्व होना अब बहुत दुर्लभ है... कहीं मिल नहीं रहा है।

अमरीश पुरी चले गए, इतने बेहतरीन परफॉर्मर को कोई पुरस्कार नहीं मिला। न जाने कभी बात करने का मौका मिलता तो अरबों टन अनुभव पूछने को मिलते। (प्राण साब से भी बात करने की इच्छा है, न जाने मौका मिल भी पाएगा कि नहीं।)

प्रभाष जोशी चले गए। उम्दा इंसान। भावुक... इतने भावुक कि आईआईएमसी के ओरिएंटेशन समारोह में जब बोलने आए तो इंसानी रिश्तों पर बात करते-करते रोने लगे। उनका गला छोटे-छोटे इंसानी भावों और रिश्तों पर भर आता, गलगला जाता, कुछ बोल नहीं पाते। मेरे लिए समाज और भावनाओं को लेकर इतना संवेदनशील इंसान इस जमाने में देखना बहुत बड़ा आश्चर्य था। न जाने ऐसे इंसान फिर भगवान अपने भट्टी में बनाएगा भी कि नहीं।

मेरी जीजी जिन्हें हम छोटे भाई-बहन ओमी जीजा कहकर बुलाते हैं। उनकी शादी के वक्त नानोसा चल बसे। मेरी जिंदगी पर अगर किसी इंसान का सबसे ज्यादा इन्फ्लूएंस मैंने खुद पर आने दिया है वो हैं जोग सिंह राठौड़, पांचौड़ी.. यानी मेरे नानोसा। गृहस्थ में रहते हुए भी किसी तपस्वी साधु की तरह रहे। हां, गांव के जीवन में कुछ चीजों का और संसाधनों का ख्याल रखना पड़ता है इसलिए शायद अपने जमा किए हुए धन से उन्हें बड़ा मोह था, इसलिए अपने सुंदर झोंपड़े के सामने बने भैंस के खूंटे के पास वो ज्यादा घूमते थे। ममा और बहनें कभी-कभी सोचती कहती थीं कि शायद यहीं पर उन्होंने अपना जमा किया हुआ रूपया गाड़ा हुआ है। जैसे-जैसे ज्यादा बूढ़े होते गए उनका मोह बढ़ता गया। पर एक बात मैं बता दूं, ये धन इसलिए उन्होंने नहीं जमा कर रखा था कि उनकी जीवनशैली राजसी थी या उनमें कंजूसी की आदत थी। दरअसल जिस परिवेश में वो रहते थो, वो जलवायु और भौगोलिक स्थिति अकाल को ज्यादा न्यौता देती थी। नहरी इलाका भी नहीं था तो पानी की भी किल्लत, फसल की भी गारंटी नहीं। ऐसे में अपने संसाधनों को कैसे सात-सात अकालों में भी बनाए रखना है और घर चलाना है ये बातें उन्हें ज्यादा जरूरी लगी और उसी के मुताबिक खुद को बना लिया। कम संसाधनों में भी जीना और सब कुछ भविष्य को ध्यान में रखते हुए व्यवस्थित रखना उनका गुण था। ठंड में जब उठते सुबह शौच से निवृत होने के लिए तो झोंपड़े के आंगन में बाहर बनी दीवार पर स्टील या तांबे का लोटा पानी से भरकर लकड़ी का ढक्कन लगाकर रख देते थे। लौटकर आते तब तक सूरज की किरणों से लोटे का पानी गुनगुना पीने लायक हो जाता। न ज्यादा गर्म न ज्यादा ठंडा। पीने के लिए परफेक्ट। सौर ऊर्जा का इस्तेमाल। बीड़ी पीते तो दो कश लगाकर रख देते। स्वास्थ्य भी सही और गांवों में चलने वाला अनिवार्य सा नशा भी हो जाता। टाइम पर सोना, टाइम पर उठना, सुबह अपने शौच से निवृत होते ही भैंस और गाय के बाड़े में चले जाना और उनकी सेवा में लग जाना। काम करने के प्रेमी या पुजारी या ये समझने वाले कि जिंदगी संघर्ष है और इसमें ढिलाई नहीं अनुशासन काम आता है।

कल रात को करीब साढ़े तीन बजे संयोग से डीडी भारती लगा दिया। कोई अंग्रेजी या हिंदी फिल्म चैनल उम्मीद के मुताबिक फिल्म नहीं दिखा रहा था तो ये चैनल लग गया। इस पर किसी बुजुर्ग से आदमी का इंटरव्यू आ रहा था। इतना स्पष्ट, असली, सच्चा और सीधा इंसान टीवी पर शायद न देखा था। ये आदमी थे कवि और साहित्यकार केदारनाथ अग्रवाल। मैं सोचने लगा कि जिंदा रहा तो शायद मैं भी ऐसी ही कुछ जर्जर कॉलर वाली शर्ट पहने सादगी से बात कर रहा होउंगा, जिसमें मेरा जोर इसी बात पर रहेगा कि कुछ नहीं मुझे तो बस अच्छा आदमी बने रहकर जीकर दिखाना था इसलिए मैंने अपनी पूरी ऊर्जा खुद को भला इंसान बनाने में लगाई।

अब पंडित जी चले गए हैं। न जाने इतने बढ़िया इंसानों के चले जाने के बाद हम गैर अनुशासित लोग धरती का क्या कर देंगे। जितनी बार भी उनकी ब्लैक एंड वाइट तस्वीर सामने आती है, जितनी बार भी मिले सुर मेरा तुम्हारा बजता है, जितनी बार भी उनके गाए भजन सुनाई देते हैं और जितनी बार भी उनके कॉन्सर्ट दिखाई देते हैं... हर बार एक तेज से भरा इंसान अपनी दिव्य इमेज के साथ मन मोहने लगता है, जिंदगी में उतरने लगता है।

पंडित जी आप जो बिना मिले ही चले गए हैं, जिंदगी भर खुद का विश्लेषण करते रहने और आंखें बंद करने से पहले उनमें झांककर खुद को जवाब देने का पाठ दे गए हैं।

गजेंद्र सिंह भाटी
मेरी डायरी - 25 जनवरी 2011, भोर से पहले के12.57

Friday 16 July, 2010

मुरली को यूँ न जाने दें...

बहुत कुछ नहीं लिखा गया, जिसका लिखा जाना जरूरी था। हम मुरलीधरन को ऐसे विदा नहीं कर सकते। उनमें जो बात थी, वह आने वाले वक्त के क्रिकेट खिलाडिय़ों में कभी भी होगी, इसमें मुझे संदेह है। मुरली श्रीलंका की शान रहे। अगर गलत नहीं हूं तो भारत के दामाद हैं। उनकी जिस खास बात और छवि को मैं इंगित कर रहा हूं, वह अलग तरीके से समझी जा सकती है। अगर कुछ नाम लिए जाएं तो मन में क्या उभरता है? सोचना।

कर्टली एंब्रोस, कर्टनी वॉल्श, वसीम अकरम, वकार युनूस, इमरान खान, रॉबिन सिंह, अजय जडेजा, जोन्टी रोड्स, हैंसी क्रोन्जे, एंडी फ्लॉवर, राहुल द्रविड़, सचिन तेंदुलकर, एलन डोनाल्ड, शॉन पोलाक, ग्लेन मैक्ग्राथ, मार्क वॉ, स्टीव वॉ, अनिल कुंबले, शेन वॉर्न और मुथेया मुरली धरन। ये सिर्फ कुछ एक नाम हैं। मगर ये सिर्फ नाम भर नहीं है। इनके साथ मेरी जिंदगी जुड़ी हुई है। मेरी जिंदगी के अमूल्य पल। इनकी छवियां मेरे लिए एक पूरे दौर को इंगित करती हैं। उस दौर को, जिसमें मैं 14 साल का था, या 9 साल का था, या 11 साल का था, या 16 साल का था। जब मैं कर्टली एम्ब्रोस का नाम लेता हूं, तो उसी के साथ एक 7 साल फुट लंबा और बड़े-बड़े होठों वाला एक कूल अश्वेत गेंदबाज मस्तिष्क में कहीं उभरता है। उसके दौडऩे, दौड़कर आने, गेंद फैंकने और बल्लेबाज के बल्ला घूमाने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अंदाज एक नायकीय तत्व का निर्माण करता था। उस नायकीय छवि से ही तो एक फिल्म सी दिमाग में बनती जाती थी। सोचते थे कि यार, ये देखो कर्टली एम्ब्रोस आ गया दौड़ता-दौड़ता। अब देखना गोला फैंकेगा। बेट्समेन तो गया। ऐसे में अगर सचिन जैसा बल्लेबाज चौका या छक्का मार देता, तो बल्लेबाज नायक बनकर उभरता। कि, यार क्या मारा है। कमाल कर दिया। समझने की बात ये है कि तब मैच के दौरान समानांतर रूप से दिमाग में फिल्म बनती चलती थी, हमारे व्यक्तिगत हीरो और विलेन होते थे, समानांतर ही जहनों में एक फैंटेसी चला करती थी और फिर एक-एक गेंद आनंदोत्सव बनती जाती थी। आज वह बिल्कुल गायब है। बिल्कुल ही गायब है।

रॉबिन सिंह क्या 'एंग्री यंग मैन यट सोबर जेंटलमेन' लगते थे। धांसू फील्डर यानी गर्व किए जा सकने वाले क्षेत्र रक्षक। आज गिना दो एक भी। वो रॉबिन सिंह, अजय जडेजा, जोन्टी रोड्स, शॉन पोलाक जैसों की ब्रीड, वो प्रजाति आज कहां है। कहीं नहीं। रॉबिन सिंह सिर्फ खेलते थे, और क्या खेलते थे। बड़े शॉट्स ज्यादा नहीं मारते थे, मगर एक-एक, दो-दो से ही जीता जाते थे। क्रूशल टाइम यानी परीक्षा की घड़ी में कैच लपक लेते थे। कद-काठी में हमारे घर के ही किसी काका जैसे लगते थे। एक ऐसे आदमी की तरह जैसे जो गली में हमारे पास से गुजर जाए और हमें पता भी नहीं चले। यहीं तो बात थी। आज क्रिकेटरों से हमारी दूरियां असीमित रूप से बढ़ गई है। उनसे हमारा कोई नाता नहीं लगता। वे लोग तो आसमान में जा बैठे हैं, हम वहां तक नहीं पहुंच सकते। रॉबिन सिंह और कर्टली एंब्रोस जमीन पर ही रहते थे। हमारे बीच के थे।

ऐसे एक-एक खिलाड़ी के नायकीय तत्वों पर बातें करते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। उन्हीं में से एक नाम मुथैया मुरली धरन का है। जमीनी आदमी। फिरकी का अंदाज भी ठेठ देसी लगता था। कद-काठी औसत से भी औसत। दर्शक दीर्घा में दर्शक बनकर बैठ जाए तो कोई कंधे पर हाथ मारकर बोल बैठे यार मुरली होता तो ये विकेट यूं ले जाता। मुरली की गेंद क्या घूमा करती थी। कभी कभी तो 45 से 60 डिग्री तक भी। एकदम चक्करघिन्नी की भांति। बेट हाथ में लेकर खड़े खिलाड़ी भी सोचते कि ये दैत्य कहां से आया है। कहीं श्रीलंका के पौराणिक किरदार रावण जैसी ही कुछ अदृश्य शक्तियां तो नहीं हैं इसमें। हम बच्चों के मन में तो रावण से मुरली की शक्तियों को जोड़कर देखने की फंतासी हर मैच में होती रहती। टीम के अन्य 10 खिलाड़ी एक तरफ और मुरली एक तरफ। फिर जब कभी सुनते की नवजोत सिंह सिद्धू ने एक दौरे में मुरली की गैंदों को खूब सीमा पार पहुंचाया, तो सिद्धू के प्रति मन में नायकीय तत्व और श्रद्धा पैदा हो जाती।

आज जब मुरली धरन क्रिकेट से सन्यास लेने की बात कह ही चुके हैं, तो ये सभी दौर, सभी नायकीय छवियां, सभी यादें जीवित की जानी जरूरी है। बेहतर हैं, सभी बच्चे अपने बचपने को जोड़कर देखें और याद कर लें। कि कैसे टीवी के सामने बरसात के दिनों में बैठते थे। सामने हॉल का दरवाजा खुला होता था। खिड़की खुली होती थी। बरसात आ रही होती थी। शाम के 4 बजे, श्रीलंका-भारत का मैच स्टार स्पोर्ट्स पर और कभी भारत-वैस्टइंडीज पर मैच ईएसपीएन आ रहा होता था। मां 'अदरक-इलाइची-काली मिर्च-गाय के ताजे दूध' से बनी गर्म-गर्म चाय लाकर देती थी। साथ में कभी घी में सेंकी हुई ब्रेड होती थी, तो कभी बेसन के 'हरी मिर्च-प्याज-आलू' के पकौड़े होते थे। फिर चाय की चुस्कियों और नमकीन पकौड़ों के साथ मैच चलता। मैच के साथ चलती नायकीय छवियों वाली फिल्में। मन में। नसें खून को तेज दौड़ातीं, खून खौलता, दिल में खुशी का करंट प्रवाह दौड़ जाता, मौहल्ले भर से आवाजें आती रहती। आनंद ही आनंद। आज जिंदगियां हमें गंभीर और चिंतित करने पर तुली हैं। चाय-पकौड़े और मैच वाली यादों के साथ भाई-बहनों की लड़ाई, मां के हाथ झाड़ू से पिटाई, दोस्तों के साथ मैच से पहले या बाद में खेल-खिलाई, पिता के घर में प्रवेश करने पर भाग-भगाई और साथ धक-धक दौड़ता मैच का स्कोर जैसी अप्रतिम यादें भी हैं। अब इन्हें याद करने का स्वर्ग सुख क्यों जाने देते हैं? मुरली जा रहे हैं। जैसे एंब्रोस, वॉल्श, रोड्स, सिंह, क्लूजनर और कुंबले चले गए। जैसे आज कठिन है, उनके दौर से जुड़ी हमारी यादों को टटोल पाना। तो मुरली के वक्त से जुड़ी यादों को तिजोरी में से निकालकर धूप में सूखने दीजिए और अपनी ही दिमागी फिल्मों में खो जाइए।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday 31 May, 2010

'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' .... और मृत्यु

मैं यह समझता हूं कि ये सब दिमागी मेहनत की बात है। जमाना नया आ गया है, मगर लोगों के सोचने और यकीन करने का तरीका पुराना है। लोग गांधीवाद को मानते हैं। मगर गांधी टोपी की जगह गांधी-मग और गांधी-टीशर्ट खरीदते हैं। संयम, स्वदेश और लघु-उद्योग धंधों के पेरोकार गांधी को ब्रांड के तौर पर 'मो ब्लां' के 60 लाख के पेन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। चे गुवेरा अपनी समाजवादी, साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई को लेकर जंगलों में भटकते रहे और मार दिए गए, मगर आज का युवा वर्ग चे-ब्रांड वाली टीशर्ट को पहनकर ऐसा महसूस कर लेता है, मानो कहीं आंदोलन करने जा रहा है।

ये बात उस धुंध को कुछ समझने की है। ये उस संकरित व्यवहार को समझने की है, जो संकरित व्यवहार पुराने ख्यालात और संस्कारों से पोषित बच्चों और उनके सामने खड़े सपाट विश्व-बाजारीकरण-टीवी-पूंजी की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा हुआ है।

ऐसा ही कुछ पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों-अधेड़ों के साथ है। उनके दिमाग को समझना बड़ा जटिल काम होगा। पढऩे, लिखने, वोट डालने, घूमने जैसी हर आजादी देने के बाद प्यार करने की आजादी के नाम पर इन मां-बाप को अपनी परंपराओं-संस्कारों और इतिहास के दूषित हो जाने का डर सताता रहता है। इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं नजर आता है कि लड़की पत्रकार हो गई है। लड़की सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो गई है। आखिर है तो अभी भी अपनी पैदा की हुई संतान ही।

कई सवाल और सोच भी संभवत: बुजुर्गों के मन में घूमती रहती होगी। अब लड़की तो दिल्ली में बढऩे चली गई। पढ़ लिखकर कुछ बड़ी-नामवाली बन भी गई, मगर। मगर मां-बाप तो अभी भी दूर-दराज के राज्य के वासी ही है। उनके आस-पड़ोस रहने वाले तो महानगरीय नहीं हुए। समाज बसा है। इज्जत बनी है। इन्हीं मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के चलते हरियाणा, राजस्थान की खांप पंचायतों ने अपनी सोच के ईर्द-गिर्द एक रेखा खींच ली है। इस रेखा के आर या पार आना-जाना इनकी बर्दाश्त से बाहर है। ये बात ओर है कि जान देकर भी लोग इसके अंदर या बाहर जाने से खुद को रोक नहीं पाते। प्यार करने से खुद को रोक नहीं पाते।

निरुपमा की मृत्यु की खबर दरअसल 'लव सेक्स और धोखा' फिल्म के प्रदर्शित होने के कुछ दिन बाद ही आई। इस फिल्म के आने का वक्त अपने लिहाज से काफी सही है। ये बात ओर है कि इस पर किसी ने गौर नहीं किया कि किस गंभीर तरीके से इसे फिल्म में पेश किया गया है। समाज से जुड़ी तीन खबरों को दिमाग में रखकर दिबाकर बेनर्जी ने 'एलएसडी' बनाई। इनमें एक खबर निरुपमा की कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। प्यार होता है, प्यार के सपने लिए जाते हैं, मां-बाप भी बेहद प्यार करते हैं, लड़की प्यार में पागल है, समझदार है, मगर इसके नतीजों की हदों से अंजान है। अंत में होता वही है। मां-बाप मान जाने के बहाने दोनों को बुलाते हैं और कुल्हाड़ी से उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। दिबाकर बेनर्जी की एलएसडी की ये कहानी और निरुपमा की कहानी इस बात को साफ कर देती है कि आज समाज और सदी के बदलते चेहरे में प्यार करना 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के राज और सिमरन की कहानी नहीं रह गई है।

या तो समाज के पुराने वृक्षों को समझाइए। वही वृक्ष जिन्होंने हमें जन्म दिया है। या फिर उनके समझदार होने इंतजार कीजिए। अगर इंतजार नहीं कर सकते हैं तो फिर मौत तय है। हरियाणा के किसी खेत की सूखी खेजड़ी में आपकी और आपके प्रेमी की लाश लटकी मिलेगी। या, आपको दिन-दहाड़े पत्थरों से मार-मारकर खत्म कर दिया जाएगा। ठीक कुछ पश्चिम एशियाई देशों के सामाजिक कानून की तर्ज पर। या फिर एक दिन खबर आएगी की आप नहीं रही हैं। या तो आप पंखे से लटक गई हैं, या आपको जहर दे दिया गया है या आपके मुंह पर तकिया रखकर आपको इस संसार में लाने वालों ने विदा कर दिया है। बस पीछे बचेगा तो निर्मोही अफसोस।

वाकई यह एक खतरनाक स्थिति में हम है। जहां, एक खास पीढ़ी और समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के दिमाग पर एक बेहद खास किस्म के मनोविज्ञान की परतें चढ़ी है। जिसके चलते उन्हें एक 'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' की परवाह ज्यादा है। अपनी औलाद की जान की कम। समाज क्या कहेगा इसका डर उतना ही ज्यादा है, जितना कि एक भंयकर गलती करने का कम।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Wednesday 26 May, 2010

'मैं नहीं समझता कि..... नक्सली आतंकी हैं.

मैं नहीं समझता कि घर के ही हिंसक हो गए। मैं यह भी नहीं मानता कि संबंधित लोग क्रांतिकारी या आतंकवादी हैं। दरअसल इन बातों को करने से पहले एक स्थिति है।

स्थिति यह है कि कोई अंबानी-बंबानी अपने तिमाही-छमाही या सालाना शुद्ध मुनाफे को कई गुना यानी हजारों करोड़ रुपये बढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह किसी राज्य की सरकार के साथ एमओयू यानी मैमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग यानी समझौता पत्र पर दस्तखत करता और करवाता है। सरकार अपने और अपने शासन की उपलब्धियों या जीडीपी को धन से आंकती है। कि, भई देखो फलाणी सरकार ने 65,000 हजार करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित किया है। या देखो राज्य का विकास किया है, 1,00,000 करोड़ रुपये का निवेश जुटाया है।

जनता को क्या पता चलता है? बस उतना ही जितना सरकार बताती है। लोग सुबह अखबार में ऐसा पढ़ते हैं, अपने 21वीं सदी में जाने और विकास दर के मुस्तैद रहने का सा अनुभव करते हैं और काम पर चले जाते हैं। इसके कुछ दिन बाद उन्हें खबर आती है कि इलाके में नक्सलियों का आतंक बढ़ गया है। और सुनने में आता है कि नक्सली दरिंदे हैं, रक्तपिपासु हैं। फिर सुनने में आता है कि इलाके के लोगों ने नक्सलियों से खुद निपटने की ठानी है। इस सोच का नाम 'सल्वा जुडूम' (इसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी और सरकार की निजी नागरिक-सेना यानी मिलिशिया करार दिया) है। इसमें सरकार लोगों की मदद कर रही है और सरकारी हथियारों से लैस आदिवासी लोग सरकारी शिविरों में रह रहे हैं और नक्सलियों को धूल चटा रहे हैं। फिर सुनने में आता है कि नक्सलियों ने पुलिस जवानों से भरे ट्रक को उड़ा दिया है, इतनी औरतों को विधवा कर दिया। देश में बहसें होनी शुरू होती है और वाक्य उभरता है, क्या नक्सली आतंकवादी हैं?

अब हम सभी ने राज्य में निवेश की घोषणा और नक्सलियों द्वारा ट्रक को विस्फोट से उड़ाए जाने की खबर के बीच 'बहुत कुछ' खो दिया। या, जानबूझकर उस बहुत कुछ का पता ही लोगों को नहीं लगने दिया गया। आखिर विशाल अंतरराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों-करोड़ रुपये अपनी पीआर और मीडिया मैनेजमेंट एंजेंसियों पर यूं ही खर्च तो नहीं करती। तभी तो टाटा जी हमें ब्रह्मस्वरुप और निर्मल नजर आते हैं। अनिल जी हमें विनम्र नजर आते हैं। ललित जी हमें खेल कारोबार के इतिहासपुरुष लगते हैं। और कुछ वक्त पहले तक सत्यम ही हमें कॉरपोरेट दुनिया की असल पवित्रता नजर आती थी।

असल में ये हैं क्या? हम नहीं जानते और जान भी नहीं पाएंगे। तभी तो केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को मंत्रालय दिलाने और कॉरपोरेट घरानों को लाभ दिलाने में सुपर दलाल नीरा राडिया का नाम सबूत समेत सामने आया। इसमें देश के शीर्ष पत्रकारों बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम भी कांग्रेस में ए राजा के पक्ष में लांबिग करने में ठोस तौर पर सामने आया। अब राजा जी 70,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की 3जी आवंटन मुहिम के कर्ता-धर्ता है। कंपनियां 3जी लाइसेंस पाने के लिए दीवारों के पीछे भी तो सरकारी और निजी हाथों में कई करोड़ रखती हैं ना। मगर, देखिए कहीं कोई जूं भी नहीं रेंगी। सब वैसे के वैसे ही हैं। आखिर नक्सलियों की एक महीन सी अच्छाई सामने नहीं आ पाती है और इन सज्जनों या दुर्जनों का एक भी अवगुण (छोटा-बारीक या कम से कम महीन ही) आम आदमी को क्यों नहीं मालूम हो पाता है?

कुछ वक्त के लिए मैं बस मान लेता हूं कि मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं, जहां प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक धन संपदा है, जंगल हैं, हरियाली है। मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं जहां मेरे पुरखे जन्में और दफन हुए। जहां की मिट्टी मेरी रग-रग में समाई है। जहां कि शुद्ध हवा के बिना में जी नहीं सकता हूं। और सदियों से यही मुझ जैसे मेरे पूरे समाज की रिहाइश है। जंगल ही मेरी ऑक्सीजन है। मुझे मेरे जंगलों से अलग करने का मतलब मेरी हत्या करना है।

अब पहुंचते हैं सरकार द्वारा हजारों करोड़ का निवेश आकर्षित करने की घोषणा वाले दिन पर। क्या हम जानते हैं कि निवेश कौन कर रहा है? क्यों कर रहा है? कैसे कर रहा है? और किस कीमत को लेकर कर रहा है? उस निवेश की एवज में हमें क्या देना होगा? नहीं जानते हैं। निवेश में कितनी पारदर्शिता बरती जा रही है? निवेश की घोषणा के वक्त खनन के इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से क्या पूछा गया?

नकी पवित्र नियामगिरी की पहाडिय़ों पर खुदाई शुरू हुई, मगर संविधान में लिखा है कि स्थानीय रहवासियों से पूछ बगैर आप खुदाई नहीं कर सकते हैं। मगर, सब खोद दिया गया और खोदा जा रहा है। मधु कोड़ा पहले ऐसे निर्दलीय थे, जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री बने। खबरें आई और दब गई कि खनन माफिया ने सरकार बनवाने और इससे पहले की सरकार गिरवाने में करोड़ लगाए। दक्षिण में रेड्डी भाइयों का राजनीति और खनन में फैला साम्राज्य भी 'द इंडियन एक्सप्रेस' में एक सीरिज के तौर पर सामने आया। इसमें ठोस तौर पर बारीक से बारीक सबूतों के साथ खबर दी गई। मगर कहीं किसी के चींचड़ भी नहीं लगा, जूं भी नहीं रेंगी।

और न जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि सफेद कुर्ता पहने लोग लाखों को उजाड़ देते हैं, टाई और काला कोट पहने करोड़ लगाकर अरबों का खोद लेते हैं और धन के नाले बहते रहते हैं। यह सब ऊपर ही ऊपर होता रहता है। मगर सवाल बनता है तो बस ये कि क्या नक्सली आतंकवादी हैं? और, सरकार उनपर हवाई हमला आखिर कब करेगी? आर नॉट वी गेटिंग लेट?

राज्य सरकार विदेशी-स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लालच और अपनी जेब भारी होने की एवज में राज्य पर एक तरह से राज करने की छूट दे देती है। बहुराष्ट्रीय कंपनी सीधे उन जंगली इलाकों में जाती है, जहां आदिवासी और प्रिमेटिव लोग शांति और सुकून से रहते हैं। वहां की जमीन अभ्रक, बॉक्साइट और लोहे जैसी अमूल्य धातुओं से युक्त है। कंपनी 4 रुपये देगी और 40 की जमीन खोदेगी। इससे 36 रुपये का फायदा कंपनी के मालिक को होगा। यानी अंबानी-बंबानी अपनी बीवी के अगले जन्मदिन पर 500-1000 करोड़ रुपये का चार्टर प्लेन गिफ्ट कर सकेंगे या फिर बंबई के पॉश इलाके में दुनिया का सबसे महंगा 40 मंजिला घर महल बना सकेंगे। उस प्लेन में बैठेंगे कितने ? 2 जने, और उस घर में रहेंगे कितने ? 6 जने। मगर उस जंगल से उजडेंगे कितने 2 लाख या 6 लाख लोग। और, साथ ही उजड़ेगी वहां की प्राकृतिक संपदा, शुद्ध हवा।

अब मुझे बताइए कि जब आप मुझे मेरी ऑक्सीजन से अलग कर देंगे। मुझे कॉर्नर में कर देंगे। मेरे पास न शारीरिक बल है, ना हि राजनीति-संविधान की समझ। मैं वैसा अपराधी भी नहीं हूं, जिसे कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर कानून तोडऩा आता हो। मैं वो भी नहीं हूं जो धड़ाधड़ अग्रेंजी बोलकर सेलेब्रिटी बन सकता हो। जो राष्ट्रीय खबरिया चैनलों के फिल्मनुमा डिबेट कार्यक्रमों में शानदार भाषा-शैली में डोमीनेट कर सकता हो। जिसे संविधान और राष्ट्र के नाम का भ्रामक संदर्भ देकर स्टूडियो में बैठे और टीवी के जरिए देख रहे करोड़ों लोगों को ब्रेनवॉश करना आता हो। मैं तो इनमें से कोई भी नहीं। और, ऊपर की बातों में जैसे मीडिया मैनेजमेंट और कॉरपोरेट फ्रॉड के उदाहरण और उनके नतीजे हैं, उनसे तो साबित हो ही जाता है कि कोई ऐसा रास्ता बचता ही नहीं है जिसपर चलकर कोई भी साधारण आदमी इंसाफ का ख्वाब भी ले सकता हो। फिर मैं तो एक जंगल में रहने वाला आदमी हूं, जिसे शहर का मतलब भी नहीं पता।

किसी बंदर के बच्चे को कोने में घेरकर नुकीले तीर या लकड़ी से घोपेंगे, तो वह रोता हुआ, कराहता हुआ, बद्दुआएं देता हुआ आखिर क्या करेगा? उसे तो एक हद तक आक्रामक होकर मारे जाने के अलावा कुछ आता भी तो नहीं है ना। उसके मर जाने पर अगले शिकार की ओर बढ़ा जाता है। और, अगर गलती से भी वह हजारों हमलावरों में से एक को भी मार पाता है तो उसे खूंखार और आदमखोर कहकर प्रचारित किया जाएगा। और, पूरे समुदाय को इन दो शब्दों के सहारे आंदोलित किया जाएगा। बाद में उस बेजान को भरे राष्ट्रीय दोराहे पर चीर दिया जाएगा।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Tuesday 16 March, 2010

'काली पट्टी बाँधे एक कमर्शियल वेंचर आईपीएल'

आईपीएल को इस सकारात्मक नजरिए से देखना जल्दबाजी और गलत होगा। यह एक कमर्शियल वेंचर या व्यावसायिक उद्यम है। इसमें राजस्थान में हुई एक दुर्घटना के प्रति सहानुभूति जताने के लिए अगर बाजू पर काली पट्टी बांधकर खिलाड़ी खेल रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे इसे सहानूभुति प्रकट करने या पीडि़तों के साथ खड़े होने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इसका एक कारण मैनेजमेंट बोर्ड और मार्केटिंग की टीम की सोच भी है। वह सोच व्यावसायिक कारणों से शुरू होकर वहीं पर खत्म हो जाती है।

यह ऐसा मौका है, जब बिना ज्यादा प्रयास किए बहुत कुछ पाया जा सकता है। आईपीएल की टीमें दरअसल विश्व भर के खिलाडिय़ों को मिलाकर बनाई गई है। राजस्थान रॉयल्स में कितने राजस्थानी है? यह सभी जानते हैं। अब क्रिकेट, बेसबॉल, बॉस्केटबॉल, हॉकी, कुश्ती या कबड्डी कोई भी खेल हो, इसमें एक बात स्पष्ट होती है। यह कि खेल में दर्शक के पास एक अपनी टीम होनी चाहिए जो क्षेत्र, राष्ट्र, रंग, जाति या किसी निजता के कारण उससे जुड़ी हो। जिसकी जीत-हार से उस देखने वाले पर फर्क पड़ता हो। एक बार जब कोई टीम उसकी अपनी हो जाती है, तो फिर उसके बाद वह बंध जाता है। नैतिकता व अन्य मनोवैज्ञानिक दायित्वों से।

आईपीएल से पहले हमारी टीम थी, भारत की टीम। या रणजी के रुप में हमारे राज्य की टीम। मगर आईपीएल के सभी खिलाड़ी राज्यों के नाम की टीमें होने के बावजूद राज्य के नहीं थे। इसलिए फिल्म कलाकारों को टीमों का मालिक बनाया गया, ताकि जनसमुदाय को बटोरा जा सके। उन्हें समर्थकों में बांटा जा सके। टीमों के अनावरण के वक्त राज्यों और स्थानीयता की मुहर टीमों पर लगाने के लिए चेन्नई की टीम का झंडा उठाने के लिए मीडिया के सामने दक्षिण के फिल्म सितारे को खड़ा किया गया। और अब ऐसा शोक का मौका भुनाया गया।

इंडियन प्रीमियर लीग मुनाफे का धंधा है। मुनाफा मनोरंजन से जुटाया जाता है, तो ललित मोदी ने शाहरुख खान को लिया, शिल्पा शेट्टी को लिया, प्रीति जिंटा और कारोबारियों को लिया। क्रिकेट का तत्व कहीं हल्का पड़ा, तो इन सेलेब्रिटियों के चेहरे काम आएंगे। चीयरलीडर्स भी लाई गई। अमेरिका के एनबीए व बेसबॉल की व्यावसायिक लोकप्रियता से काफी प्रभावित ललित मोदी ने पूंजी बटोरने के सारे तत्व वहां से लिए। मल्टीप्लेक्स आपकी जेब कब खाली कर देते हैं? और कैसे कर देते हैं? आप सोचते ही रह जाते हैं। पर इनका मुनाफा कमाने का समीकरण ही ऐसा है।

आईपीएल का सामाजिक विश्लेषण जरूरी है। लोगों से ऐसा करने की कुछ उम्मीद है। कितनी बड़ी विडंबना है कि राजस्थान के सवाईमाधोपुर में एक सूखे तालाब में पुल से गिरी बस में जो 26 युवा मारे गए, उनको या उनके बिलखते परिवारों को सहानुभूति देने वाला मौका क्या था? जरा देखिए। चीयरलीडर्स ठुमका रही थीं। स्टेडियम की जालियों के पीछे बैठी भीड़ तालियों से चौकों-छक्कों का स्वागत कर रही थी। चारों और उत्सव का सा माहौल था।

तो क्या हमें खुश होना चाहिए? कि देखो यार कितने भले लोग हैं राजस्थान रॉयल्स के। राजस्थान की माटी से जुड़े हुए हैं। दर्शकों को भी तो एक कारण चाहिए ना। एक ऐसा कारण जिसके बूते वह अपनी क्रिकेट टीम के इस कदम को रोमेंटिसाइज कर सके। इस मैच में उतरे खिलाडिय़ों के बाजू से बहती भावनाओं से फिल्मी फंतासी गढऩे में दर्शकों को खूब मजा भी तो आता होगा ना। पूंजी के इस महाखेल को कभी कर्मयुद्ध तो कभी धर्मयुद्ध करार दिया जाता है। क्या मजाक है?

एक आईपीएल के विज्ञापन का जिक्र किया गया था, जिसमें एक लाल चटाई पूरे देश को पिरोती हुई गुजरती है। बता दूं कि वह विज्ञापन भी मौलिक नहीं था। उसकी संकल्पना तो चुराई गई ही थी, मगर बड़ी बेशर्मी से कुछ दृश्य भी मार लिए गए।

तो कहना यही है कि पूंजी का खेल है। समाज में कुछ चीजों को बड़ी ही चतुराई से प्रवेश कराया जा रहा है। एक किस्म की संस्कृति विकसित की जा रही। पूरा का पूरा मर्चेंडाइज फ्रैंचाइजी खड़ा हो रहा है, होगा भी। पटकथाएं लिखी जानी है। दर्शकों के खाने-पीने के सामान के लिए स्टेडियमों में महंगे टेंडर उठेंगे। परदे के पीछे और मेजों के नीचे नोट दिए जाएंगे। कुछ विशेष चीजें कूल होंगी, कुछ विशेष चीजें हॉट होंगी। बाकी सब को औसत होने पर कौसा जाएगा। बहुत कुछ होगा। बस जिस भावना से तुमने इस वाकये को देखा है, वही भावना इस शोक की घड़ी का इस्तेमाल करने वालों में नहीं होगी।

('हार कर भी जीते राजस्थानी रॉयल्स ' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। http://khel-khelmein.blogspot.com/2010/03/blog-post_16.html )

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday 15 March, 2010

'पुरूषवादी गंदली काई में चंडियां'

('नारी तूं नारायणी' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। www.discussiondarbar.blogspot.com )

हैं, कुछ बातें सही हैं। कहने का तरीका आक्रामक और बेपरवाह किस्म का है। कुछ फ्रस्ट्रेशन भी है। बहुत सी बातें खारिज करने लायक हैं। पुरूषवादी मानसिकता साफ झलकती हैं। साफ लगता है कि मनन करने की आदत नहीं है। विचारों को कॉपी-पेस्ट करने में यकीन करते हो। यहां से पढ़ा, वहां लिखा। यहां से सुना, मानकर वहां कहा। इस तरह से। यह रोग युवाओं में बड़े पैमाने पर लगा है। और युवाओं में ही क्यों, समाज में जन्मने वाले शिशु से लेकर अर्थी में लेटने वाले बूढ़े तक सभी तो उम्र भर अपने भेजे को सुलाए ही रखते हैं। शिक्षा ही ऐसी है, क्या करें? अपनी सोच विकसित करने, नए प्रयोग करने, ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने और अभिनव प्रयोग करने को तो इन समाजों में हतोत्साहित ही किया जाता है।

पंचायतों में सच है कि सरपंच महिलाओं के पति ही असली सरपंच हैं। पर इसी बहाने वह औरत घर से बाहर तो आई। मसलन, राजस्थान की एक छोटी जगह, एक छोटे से गांव, एक पिछड़े गांव में एक ऐसी लड़की सरपंच है, जो लेडी श्रीराम कॉलेज दिल्ली में पढ़ी है। अंग्रेजी में पढ़ी-लिखी है (यह उदाहरण इस लिए कि एक समाज के रूप में हम अंग्रेजी बोलने वाले को सफलता का पर्याय मानते हैं।) जींस और शर्ट पहनती है। घोड़े की सवारी करती है। और यह सरपंच लड़की हर वो काम करती है, जो एक पुरूष सरपंच नहीं कर पाता।

तो यह लड़की सरपंच क्यों बनी? इसके मन में ये ख्याल भी कैसे आया? वह डुंगरपुर की महिला कलेक्टर (संभवत: अंजू) की तरह कलेक्टरी करके लोगों की सेवा और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के काम से जुड़ सकती थी। बहुराष्ट्रीय कंपनी में करोड़ के पैकेज पर नौकरी कर सकती थी। सवाल यह भी है कि आज से पहले कितनी लड़कियां एलएसआर से आई हैं। यानी सरपंचाई में औरतों को मुखरता मिलने से पहले ऐसे मामले कितने थे। चक्कर यह है कि पुरुषों की मूछों के बाल नीचे जो हो जाते हैं, इसलिए उनका सारा ध्यान महिलाओं को उनके साथ एक ही जाजम पर नहीं बैठने देने का होता है।

आरक्षण का जहां तक सवाल है, तो वह मिलना ही चाहिए। क्यों नहीं मिले? सदियों तक चूल्हे में फूंकनी मारते-मारते अपनी सांसें जला बैठी औरतों की कौम को जानबूझकर पीछे रखे जाने का मुआवजा तो देना ही होगा। शराबी पति की गालियां सुनती, मुहल्ले भर के सामने मानमर्दन झेलती, सास की प्रताडऩा से तिल-तिल मौत मरती, अपने जिस्म को ढांपती (पुरूष को अपनी कमर के नीचे के हिस्से को खुजाते हमेशा देखा गया, क्योंकि उसे खुजली होती है। अगर एक महिला अपने किसी भी अंग को खुजाए तो यह सैक्स के लिए आमंत्रण बन जाता है। क्या व्यंग्य है? क्या बकवास है।) और अबला होने का संताप लिए मर जाती नारी को नारायणी कह देने से ही कुछ नहीं होता है। पुरूष का शादी से पहले दसों को नीचे से निकाल देना दोस्तों के बीच हांकने वाला अचीवमेंट होता है। पत्नी के शादी से पहले संबंध रहे हों, तो इन्फोसिस में काम करने वाला भी आत्महत्या कर लेता है। बेअक्ल।

आरक्षण गांव की औरतों के लिए वरदान ही तो है। कलेक्टर, जिला अधिकारी, पुलिस अधिकारी, चुनाव अधिकारी, नरेगा, आरटीआई, निर्माण कार्य, फंड, बैठकें, सार्वजनिक सुनवाइयां, लोगों से मुलाकातें और एक सरपंचनुमा पदवी (बाकियों की भाषा में डेजिगनेशन) के साथ जीना कैसे होता है? यह जानना क्या व्यर्थ है? नहीं यह बड़ा पुरस्कार है, बड़ी हसल है। संसद में आरक्षण के लिए देश को अस्थिर कर देने वाले महिला आरक्षण से डर रहे हैं। हालांकि इस पर कई बातें हो सकती हैं। यही आखिरी सत्य नहीं है। दूर-दराज के सामाजिक जंगल में सदियों में जमी पुरूषवादी गंदली काई को घिस-घिस कर हटाने के लिए तेजाब चाहिए। और आरक्षण तो सिर्फ बर्तन धोने वाली साबुन और ब्रश है। फिर भी यह काम करेगा।

जन्म देने वाली मां को बस में भारी भीड़ में सबसे धक्के खाते देखना दिलचस्प होगा न? कोई उसे बैठने के लिए सीट दे या न दे? क्या फर्क पड़ता होगा ना? औरतों को कुछ विशेष देने की क्या जरूरत है? क्यों? तुम्हारी बहन अगर आगे बढ़े तो कैसा लगेगा? अगर पुराने विचारों से लैस नहीं हो तो बताना।

बात इतनी सी है कि कभी-कभी अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर सोचना पड़ता है। इसने सालों से दिमाग पर जो पूर्वाग्रहों की परत जमी है, उसे हटा पाना दु:खदायी अभ्यास है। हर किसी के बस में नहीं है। ये ऐरे-गेरे हमारे जैसे औसत लड़के सलवार-कमीज-चुन्नी में चोटी गूंथ कर जा रही कस्बाई लड़की को तो छेड़ेंगे, उस पर फिकरे कसेंगे। मगर मल्लिका सहरावत जैसी बोल्ड लड़की के सामने दुम दबा लेंगे। उससे बात भी नहीं कर पाएंगे। कई चंडियां ऐसी हैं, जिनके आगे नहीं पसरने के अलावा इन मर्दों के सामने चारा नहीं।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Wednesday 24 February, 2010

Am I the superior race?

Life in Delhi has been difficult for Linda. Anywhere she goes she gets to hear lewd comments. Her only fault – she possesses all the features of a girl from north east India. Infact anybody from this part of the country is addressed to as “chinkies” – now definitely for their mongoloid eyes. Can we call this racism ? Writes Mercy Barkakoty...

Linda is a young and ambitious girl hailing from one of the beautiful states in North East India. Her parents have dreamt of a bright future for their daughter. To fulfill her dreams she has come to Delhi. Still in her twenties Linda studies in one of the reputed colleges in Delhi University. But the capital city has not given her a warm welcome. Life in Delhi has been difficult for her. Anywhere she goes she gets to hear lewd comments passed at her by people. Her only fault – she possesses all the features of a girl from north east India. Infact anybody from this part of the country is addressed to as “chinkies” – now definitely for their mongoloid eyes. Can we call this racism – the same word with the same meaning that everybody hates but yet is so prevalent in the country?

The country burns, political parties fight and protests take place when an Indian is abused in Australia or UK or the USA. But do we really care when the same thing happens within the country. Political parties opposed playing with the Australian team, the foreign ministry and the Home ministry had endless debates and discussions with their foreign counterparts to respond immediately to the plight of the Indians in Australia. But again they fail to stop racism in their own country.

This is not just the plight of Linda but of all those thousands of north eastern students especially girls, who come to Delhi every year for a fresh new beginning in their life. A lot of cases in the past have reflected the sorrowful state of the people from this region. Horrific tales of rape, molestation, abuses speak for itself – while some have been solved, some still remain in the files with just a number.

Huge uproar by the student community demanding stricter measures against such practices have put a lot of pressure on the government. Of late the Sheila Dixit government has been trying hard to curb such evils. Simultaneously a lot of women help numbers have also been activated for faster improvements. But it is not that always there has to be policemen present everywhere to check all these. What needs to be taken into account is the mindset of the people. I truly believe that a society can progress with a progressive mindset.

Laws can only help. So here I leave the floor open for answers and comments from my readers to find out for itself, the steps needed to be taken to prevent such malpractices. Is regionalism playing a dominant role over universal brotherhood? Is the fact that India is a diverse country with so many people with different and unique features hard to digest? Is it that higher education leading to narrower thinking? Or is it that we simply want to mind our own business rather than raising a voice against such evils in the society?

The answer lies in our mind and we know it। Otherwise who knows today, it is Linda who is suffering, tomorrow it might be us – same problem in a different place, in a different situation, in a different environment!! Let’s give it a thought.

(Mercy is a Journalist based in Delhi. She did her English Journalism from Indian Institute Of Mass Communication (IIMC, New Delhi). She worked in a prestigious Publication House in Delhi. At present she's with one of the leading English news dailies in the country. Having a good experience of working with various NGO's specifically in North-East, She loves her motherland and takes great pride in writing about issues pertaining to North-Eastern part of India.)