'वह 1978 का बरस था। मैं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से दिल्ली आया था। यहां औखला इंडस्ट्रियल एरिया में बल्ब बनाने की एक फैक्ट्री में काम करने लगा। कुछ साल बाद नौकरी छोड़ कर यहीं पर चाय-तंबाकू की एक दुकान खोल ली। ' कहते हुए रामलखन के चेहरे पर पूरी आत्मीयता झलक रही है। चाय बनाने और यहां-वहां लोगों को चाय की गिलास पकड़ाने की व्यस्तता में भी वह पूरे धैर्य से मेरे सवालों के जवाब दे रहा है। करीब 45-50 का लगने वाला रामलखन आगे कहता है, ' उस वक्त मुझे 140 रुपये महीना मिलते थे। और , उसमें मैं बहुत ही खुश रहता था। आज यहां 20,000 रुपये महीना पाने वाले लोग चाय पीने आते है, तो भी उनके चेहरे पर वह खुशी नहीं नज़र आती । ' रामलखन बताता है कि यहां खाना खाने के लिए तब एक चावला होटल था। आज भी है। वह कहता है, 'तब दो रुपये में मैं भरपेट अच्छा खाना खाता था। मगर वह वक्त बदल गया। ......जब इंदिरा गांधी मरी तो दिल्ली में पालक 20 रुपये किलो बिका। ' मैंने पूछा कि उससे पहले पालक क्या भाव था? उसका जवाब आता है ....यही कोई 2-3 रुपये किलो।
एक बार गूगल पर डीटीसी यानी दिल्ली परिवहन निगम के बारे में कुछ ढूंढ रहा था। उस वक्त यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि इसकी रिंग रोड़ सेवा सिर्फ 10 रुपये में विश्व के सबसे लंबे रुटों में एक रिंग रोड़ का चक्कर लगाने वाली अकेली सेवा है। इतनी सस्ती सुविधा दुनिया में और कहीं नहीं थी। संभवत: अब भी नहीं होगी। कुछ वक्त पहले इसकी टिकट दरें बढ़ी। 5, 10 और 15 रुपये की नई दरों पर पहले दिन बसों में खूब हो-हल्ला हुआ। बिहार मूल के मेरे मित्र आशीष प्रभात मिश्रा एक कारोबारी अखबार में नौकरी करते हैं। पहले जहां 5-5 रुपये में दो बसें बदल कर आशीष अपने बसेरे पहुंच जाते थे, आज वह दर 10-10 रुपये हो गई है। दरें बढऩे पर उन्हें मीडिया और स्थानीय नेताओं के रवैये पर बहुत दुख हुआ। उनका कहना था,' ऐसा लगता है, दिल्ली के नेताओं को फिर से चुनाव में खड़ा नहीं होना है। अगर ऐसा नहीं होता, तो बिना सार्वजनिक संवाद और सलाह के सार्वजनिक परिवहन को यूं गरीब की पहुंच से परे नहीं किया जाता। ' मीडिया पर बरबस फट पड़ते आशीष कहते हैं,' अखबार वालों ने इस मुद्दे पर उस गरीब का साथ देना गवारा नहीं समझा, जिसकी जेब में महंगाई ने वैसे ही डाका डाल रखा है। दाल की कीमतें 100 रुपये से jyada हैं। वह दाल जो सबसे कमतर और गरीबों का भोजन मानी जाती है। अखबारों में कोई आलोचनात्मक खबर नहीं है। ' आशीष कहते हैं,' देख रहे हैं.... कमजोर विपक्ष होने से क्या होता है? '
गूगल की घोषणा भी तो आई है। अब से संभवत: गूगल पर खबरें पढऩे के लिए लोगों को प्रति खबर पैसे चुकाने होंगे। पानी, मिट्टी, हवा, अक्षर, पेड़, खून, इज्जत, शक्ति, सुविधा, चिता की लकडिय़ां, भगवान और अब गूगल.....क्या रह गया है, जो बिन पैसे अब मिलता हो? और फिर अक्षय कुमार भी तो हिप-हाप अंदाज में नाचते हुए कटरीना से कहते हैं, 'पैसा-पैसा करती है, तू पैसे पे क्यों मरती है। क्या रक्खा है पैसे, में पैसे की लगा दूं ढेरी...। मैं बारिश कर दूं, पैसे की, जो तू हो जाए मेरी। '
जाहिर है, कटरीना तो उनकी हो ही जाएगी। लाल किले के पास से बदरपुर बार्डर की ओर लौट रहा था, कि बगल में बैठे बंगाली मूल के एक भाई से बातें हुई। बिल्कुल अलग ही सवाल करने के अंदाज में उसने पूछा, 'आप कहां के रहने वाले हैं? ' मैंने कहा राजस्थान का। उसने फिर पूछा, 'वहां आटा क्या भाव मिलता है? ' मैंने कहा, यही कोई 14-15 रुपये किलो। उसने कहा, '..और दिल्ली में... दिल्ली में 20 रुपये से नीचे खाने को आटा नहीं मिलता है। बस का भाड़ा बढ़ गया है। दाल भी खा नहीं सकते हैं। यहां की सरकार गरीब को बस जीने ही नहीं देना चाहती है। बंगाल में ऐसा कभी नहीं होता। अगर ये मंहगाई और भाड़े में बढ़ोतरी बंगाल में हुई होती तो लोग सरकार की हालत खराब कर देते। ' पूछने पर उस भाई ने बताया कि उसे दिल्ली में आए हुए करीब 13-14 साल हो गए हैं। यहां वह भोगल में रहता है। उसके जैसी प्रतिक्रिया वाले दिल्ली में बहुत से और हैं।
भाड़ा बढऩे के 2-3 दिन बाद की बात है। मैं आंनद विहार से काले खां आईएसबीटी आ रहा था। बस हर स्टैंड के बाद खचाखच भरती जा रही थी। भीड़ भरी बस में एक आदमी अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ चढ़ा। दिल्ली के दानवाकार महानगर होने से घबराया और कुछ सहमा यह आदमी जैसे-तैसे बस में अपने परिवार को चढ़ा पाया। अपनी कर्कश आवाज और बुरेव्यवहार के साथ कंडक्टर आया। आदमी ने कंडक्टर को दस रुपये का नोट देते हुए दो टिकट मांगी। पता नहीं उस वक्त उस पर क्या बीती होगी, जब कंडक्टर ने कहा, '10 नहीं 30 रुपये निकाल। ' अब बाकी सभी के लिए 30 रुपये जायज नजर आते हो, मगर उस आदमी ने तो यह सोचा ही कि दस रुपये में वह अपनी बीवी और बच्चों के साथ सफर पूरा कर लेगा। उसका दिल बैठ गया। जेब के किस कोने से न जाने उसने 20 रुपये निकाल कर दे दिए। इसके बाद मालूम नहीं उसके पास और कुछ बचा भी था....... या नहीं?
आईटीओ, पुरानी दिल्ली, प्रगति मैदान, आईएसबीटी और मैट्रो जैसे शहर में कई बिंदु है, जहां तरह-तरह के फुटकर सामान के साथ ठेले वाले खड़े रहते हैं। नमकीन, पानी, चाय, मूंगफली, शकरकंद और रूमाल बेचते इन लोगों को एक-एक, दो-दो रुपये से ज्यादा का मार्जिन नहीं मिलता है। अब एक साथ 10-15 रुपये तक बढ़ रही सार्वजनिक सुविधाओं और महंगी होती चीजों का जवाब भला वह अपने एक-दो रुपये के मार्जिन से कैसे देगा। फिर ये बाद तो भूल ही जाइए कि कभी उसकी बेटी या बेटा कॉनवेंट स्कूल में जाएगा। ब्रांडेड कपड़े और जूते पहनेगा। बोतलबंद पानी पिएगा। गाड़ी में घूमेगा। वह तो बस अपने पिता की ही तरह चिलचिलाती धूप के नीचे अपने भाग्य की तरह काला होता जाएगा। और काला रंग भी तो समाज में स्वीकार्य नहीं है ना। 'ट्रैफिक सिग्नल ' के उस भीख मांगने वाले सांवले बच्चे की तरह हो सकता है वह भी 'मर्दों वाली गोरा होने की क्रीम लगाकर ' अपने तय भाग्य को बदलने की कोशिश करे।
गजेन्द्र सिंह भाटी