Tuesday 25 January, 2011

पंडित भीमसेन चले गए...

(लिखा तो अपने लिए ही था। पर अपनी निजी डायरी के पन्नों में से ये यादें बांट रहा हूं।)

ये कुछ ऐसी ही फीलिंग थी। उस वक्त भी, जब अमरीश पुरी के देहांत की खबर पहले-पहल सुनी। यकीन नहीं हुआ। न जाने क्यों हिंदी फिल्मों के इस बेहद बुरे इंसान के साथ लगाव सा महसूस कर रहा था। शायद 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के बाउजी के तौर पर जो चांटा उन्होंने राज के गाल पर क्लाइमैक्स से कुछ पहले मारा था, वो कई तरह की यादें सिनेमा की मुझे दे गया। अगर ये चांटा न होता तो इस फिल्म की इंटेसिटी आखिर में जाकर ढीली हो जाती। मैं ये भी समझता हूं कि अगर शाहरुख खान को अपनी फिल्मों में अमरीश पुरी की जगह किसी और खलनायक का साथ मिलता तो आज वो इतने लोकप्रिय कलाकार नहीं बन पाते। अमरीश फिल्मों में इतनी विश्वसनीयता से बुरे बन जाते थे कि उनके खिलाफ खड़ा हीरो, अच्छा लगता था। अगर वो न होते तो आज शाहरुख शाहरुख न होते।

तो जो कष्ट मेरी आत्मा को उस दिन हुआ जब अमरीश पुरी गए, वो ही आज हुआ जब पंडित भीमसेन जोशी भी ले गए। न तो मैं कभी अमरीश पुरी से मिला था, न कभी भीमसेन जोशी से। पर न जाने क्या है कि छब्बीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते मीडिया के अलग-अलग माध्यमों ने इन दोनों की जो इमेज मेरे मन में धीरे-धीरे बनाई, या मेरी खुद की लोगों को दूर से देख-पढ़-सुन-सोच कर परखने की मशीनरी से जो इमेज बनी उससे मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि कुछ अनजानी खामियों या बुराइयों को छोड़ दूं तो इनके काम और सार्वजनिक व्यवहार वाली इमेज ने मेरे मन में इन्हें भले इंसानों के तौर पर स्थापित कर दिया। दोनों अलग-अलग माध्यमों और क्षमताओं वाले लोग रहे, एक करके देखना अजीब लग सकता है, पर मैं बात कर रहा हूं मेरे मन में उमड़-घुमड़ कर आ रहे रसायनों की। इन रसायनों की शक्ल और स्वाद, शरीर के दिमाग के भीतर लगभग एक सा है। इसका एक बहुत बड़ा कारण अमरीश और भीमसेन का काम और ईमानदार अनुशासित काम है। दोनों ने जो क्षेत्र चुने उनमें बहुत मेहनत की, जिंदगी भर ईमानदार और गंभीर बने रहे।

भीमसेन जोशी जब भी परफॉर्म करते दिखे तो अपने शास्रीय संगीत के साथ ही दिखे, कुछ भी और करते नहीं दिखे। बस क्रिकेट और कारों के अपने व्यक्तिगत शौक के अलावा। शायद मिले सुर मेरा तुम्हारा की छाप और उनके ऐतिहासिक आलाप लोकप्रिय उदाहरण है, ये देखने के कि इस काम में उनके जैसा दूसरा कोई नहीं था। था भी तो हम तक दुर्भाग्यवश पहुंच नहीं पाया। पंडित जी ने जो भी अपने पीछे छोड़ा है वो दिव्य है। दस वर्ष की उम्र से जो चीज इतने जज्बे से खुद से जोड़ी वो धीरे-धीरे बेजोड़ होती चली गई।

एक कारण ये भी है कि ये दोनों लोग या कहें यहां पर खासतौर पर पंडित भीमसेन जोशी सदाचारी लोग लगे। हो सकता है बहुत सी अच्छी-बुरी बातें पता नहीं है, पर ये भी एक तथ्य ही है कि अगर बुरी बातें हैं भी तो वो सार्वजनिक होकर मुझे कुछ बुरा नहीं सिखा गई। मैंने तो बस मिले सुर मेरा तुम्हारा और कुछ ऐसे आलाप सुने हैं, कुछ ऐसी शारीरिक भाव-भंगिमाएं देखी कि उनके तेज का वर्णन नहीं कर सकता हूं। वो बस मेरे भीतर महसूस कर रहा हूं जो सभी अलग-अलग तरीके से महसूस करते ही रहेंगे।

गम ये भी है कि उनसे मिला नहीं, शायद मेरे नसीब में ये भी एक बात लिखी है कि अपनी पसंद के जो कुछ एक लोग हैं वो दुनिया से चले जा रहे हैं और मैं उनसे मिल नहीं पा रहा हूं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साब चले गए। एक खूबसूरत इंसान। आप बस उनकी बातें सुनते ही रह जाएंगे। परफेक्ट थॉट्स। धर्म, समाज, संस्कृति, रिश्ते, पर्यावरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, आधुनिकीकरण, ग्लोबलाइजेशन, समाज में बढ़ती असंवेदनशीलता, अतिवाद, स्वतंत्रता, प्रेम.... न जाने कितने ऐसे ही विषय हैं जिनपर दर्जनों बहसें और एडिटोरियल हर साल देखते हैं, पढ़ते हैं पर सब बेकार ही साबित होते हैं। खां साब के इंटरव्यू देखें ...आपकी छाती में प्रेम उमड़ आता है, अपनत्व का सागर दिखता है... वो प्रेम का आभामंडल उनकी बातों में ऐसा लगता जैसे इनकी बातों को लागू करते रहो और एक शांत खूबसूरत समाज का निर्माण होता रहेगा। धार्मिक कट्टरवाद पर क्या उनके प्यारे और मजबूत जवाब होते, क्या बताऊं। खां साब में कुछ साधारण होना ही असाधारण हैं... का बड़ा तत्व छिपा हुआ था। ये कई बातें कहता था और कहता रहेगा। इतने बड़े कलाकार थे पर उनका माचों (खाट) पर बैठना, गली में घूमना, बगल के मंगला मईया के मंदिर में बैठकर गाना, अल्ला का आलाप लेकर कट्टरपंथियों को जवाब देना, भाइचारे को व्यावहारिक तौर पर जीकर दिखा जाना, वही कुर्ता-पायजामा पहनना, वही दाल-रोटी खाना। कद की बात करें तो इन्हीं साधारण गुणों के साथ लाल किले पर बुलाया जाना। आजादी की पहली शहनाई जो तब के बाद जन्म लेने वाले हर बच्चे की रग में भी खून के स्वर में बहती है.. खां साब ने ही बजाई थी। आज कोई गाली-गलौच भी करता है तो चार जगह बताता है कि मैं मुंहफट हूं।... अपने काम को बड़ा करना और जबां को खुद की तरह मीठा बनाकर साधारण बने रहना ये ही दिव्य गुण है। ईमानदार व्यक्तित्व होना अब बहुत दुर्लभ है... कहीं मिल नहीं रहा है।

अमरीश पुरी चले गए, इतने बेहतरीन परफॉर्मर को कोई पुरस्कार नहीं मिला। न जाने कभी बात करने का मौका मिलता तो अरबों टन अनुभव पूछने को मिलते। (प्राण साब से भी बात करने की इच्छा है, न जाने मौका मिल भी पाएगा कि नहीं।)

प्रभाष जोशी चले गए। उम्दा इंसान। भावुक... इतने भावुक कि आईआईएमसी के ओरिएंटेशन समारोह में जब बोलने आए तो इंसानी रिश्तों पर बात करते-करते रोने लगे। उनका गला छोटे-छोटे इंसानी भावों और रिश्तों पर भर आता, गलगला जाता, कुछ बोल नहीं पाते। मेरे लिए समाज और भावनाओं को लेकर इतना संवेदनशील इंसान इस जमाने में देखना बहुत बड़ा आश्चर्य था। न जाने ऐसे इंसान फिर भगवान अपने भट्टी में बनाएगा भी कि नहीं।

मेरी जीजी जिन्हें हम छोटे भाई-बहन ओमी जीजा कहकर बुलाते हैं। उनकी शादी के वक्त नानोसा चल बसे। मेरी जिंदगी पर अगर किसी इंसान का सबसे ज्यादा इन्फ्लूएंस मैंने खुद पर आने दिया है वो हैं जोग सिंह राठौड़, पांचौड़ी.. यानी मेरे नानोसा। गृहस्थ में रहते हुए भी किसी तपस्वी साधु की तरह रहे। हां, गांव के जीवन में कुछ चीजों का और संसाधनों का ख्याल रखना पड़ता है इसलिए शायद अपने जमा किए हुए धन से उन्हें बड़ा मोह था, इसलिए अपने सुंदर झोंपड़े के सामने बने भैंस के खूंटे के पास वो ज्यादा घूमते थे। ममा और बहनें कभी-कभी सोचती कहती थीं कि शायद यहीं पर उन्होंने अपना जमा किया हुआ रूपया गाड़ा हुआ है। जैसे-जैसे ज्यादा बूढ़े होते गए उनका मोह बढ़ता गया। पर एक बात मैं बता दूं, ये धन इसलिए उन्होंने नहीं जमा कर रखा था कि उनकी जीवनशैली राजसी थी या उनमें कंजूसी की आदत थी। दरअसल जिस परिवेश में वो रहते थो, वो जलवायु और भौगोलिक स्थिति अकाल को ज्यादा न्यौता देती थी। नहरी इलाका भी नहीं था तो पानी की भी किल्लत, फसल की भी गारंटी नहीं। ऐसे में अपने संसाधनों को कैसे सात-सात अकालों में भी बनाए रखना है और घर चलाना है ये बातें उन्हें ज्यादा जरूरी लगी और उसी के मुताबिक खुद को बना लिया। कम संसाधनों में भी जीना और सब कुछ भविष्य को ध्यान में रखते हुए व्यवस्थित रखना उनका गुण था। ठंड में जब उठते सुबह शौच से निवृत होने के लिए तो झोंपड़े के आंगन में बाहर बनी दीवार पर स्टील या तांबे का लोटा पानी से भरकर लकड़ी का ढक्कन लगाकर रख देते थे। लौटकर आते तब तक सूरज की किरणों से लोटे का पानी गुनगुना पीने लायक हो जाता। न ज्यादा गर्म न ज्यादा ठंडा। पीने के लिए परफेक्ट। सौर ऊर्जा का इस्तेमाल। बीड़ी पीते तो दो कश लगाकर रख देते। स्वास्थ्य भी सही और गांवों में चलने वाला अनिवार्य सा नशा भी हो जाता। टाइम पर सोना, टाइम पर उठना, सुबह अपने शौच से निवृत होते ही भैंस और गाय के बाड़े में चले जाना और उनकी सेवा में लग जाना। काम करने के प्रेमी या पुजारी या ये समझने वाले कि जिंदगी संघर्ष है और इसमें ढिलाई नहीं अनुशासन काम आता है।

कल रात को करीब साढ़े तीन बजे संयोग से डीडी भारती लगा दिया। कोई अंग्रेजी या हिंदी फिल्म चैनल उम्मीद के मुताबिक फिल्म नहीं दिखा रहा था तो ये चैनल लग गया। इस पर किसी बुजुर्ग से आदमी का इंटरव्यू आ रहा था। इतना स्पष्ट, असली, सच्चा और सीधा इंसान टीवी पर शायद न देखा था। ये आदमी थे कवि और साहित्यकार केदारनाथ अग्रवाल। मैं सोचने लगा कि जिंदा रहा तो शायद मैं भी ऐसी ही कुछ जर्जर कॉलर वाली शर्ट पहने सादगी से बात कर रहा होउंगा, जिसमें मेरा जोर इसी बात पर रहेगा कि कुछ नहीं मुझे तो बस अच्छा आदमी बने रहकर जीकर दिखाना था इसलिए मैंने अपनी पूरी ऊर्जा खुद को भला इंसान बनाने में लगाई।

अब पंडित जी चले गए हैं। न जाने इतने बढ़िया इंसानों के चले जाने के बाद हम गैर अनुशासित लोग धरती का क्या कर देंगे। जितनी बार भी उनकी ब्लैक एंड वाइट तस्वीर सामने आती है, जितनी बार भी मिले सुर मेरा तुम्हारा बजता है, जितनी बार भी उनके गाए भजन सुनाई देते हैं और जितनी बार भी उनके कॉन्सर्ट दिखाई देते हैं... हर बार एक तेज से भरा इंसान अपनी दिव्य इमेज के साथ मन मोहने लगता है, जिंदगी में उतरने लगता है।

पंडित जी आप जो बिना मिले ही चले गए हैं, जिंदगी भर खुद का विश्लेषण करते रहने और आंखें बंद करने से पहले उनमें झांककर खुद को जवाब देने का पाठ दे गए हैं।

गजेंद्र सिंह भाटी
मेरी डायरी - 25 जनवरी 2011, भोर से पहले के12.57