सबका पेट भरने वाला, भारत का किसान आज भूखों मर रहा है। क्योंकि आज ग्लोबलाइजेशन तय कर रहा है। कौन राजा बनेगा, कौन रंक । सबसे ऊपर हुआ करने वाला किसान अब सबसे नीचे है । आईटी क्रान्ति के नारे बुलंद है। एसी के नीचे बैठकर कंप्यूटर चलाने वाला सम्रद्ध है , धूप के नीचे हल चलाने वाला काला है वृद्ध है।
पहले मौसम मेहरबान होता था। फसल लहलहाती थी। अब उसने भी किनारा कर लिया है। देश में नहरों की मौजूदगी भी बिखरी हुई है। जैसे तैसे करके होने वाली फसल ....खरीदने कोई नहीं आता है। सरकार आती है तो मुठ्ठी भर रुपयों के साथ । बड़ी कंपनियाँ विदेशों से सस्ता धान खरीदतीं हैं। सीमाँ कर ने महँगे मोबाइल टकेके भाव कर दिए तो विदेशी फसलें भी टके के मोल मिलने लगीं ।
महाराष्ट्र में पशु नहीं मरते , जितने तो किसान जहर खा लेते हैं। जिसके पास जहर के पैसे भी नहीं होते हैं वे खेत की ही किसी सूखी खेजड़ी से झूल जाते हैं। कपास की खेती करते हैं, पर पहनने को लंगोट के अलावा कुछ भी नहीं है। अब तो किसानों को भी मरनेकी आदत सी हो गई है। जिस दिन नहीं मरे, उस दिन लगता ही नहीं कि भारत में ग्लोबलाइजेशन है।
मजदूर किसान हितों को झंडा बनाकर आगे बढ़ी पार्टियाँ, हँसिया और गेहूँ की बाली, अपनी पार्टी कार्यालयों की दीवारों पर पुतवाती हैं। फिर अंग्रेज़ी में लेख लिखतीं हैं , भाषण देती हैं।
सरकार आज लाचार हैं? इतनी कि , किसान भी नहीं ।
मजदूर किसान हितों को झंडा बनाकर आगे बढ़ी पार्टियाँ, हँसिया और गेहूँ की बाली, अपनी पार्टी कार्यालयों की दीवारों पर पुतवाती हैं। फिर अंग्रेज़ी में लेख लिखतीं हैं , भाषण देती हैं।
सरकार आज लाचार हैं? इतनी कि , किसान भी नहीं ।
ग्लोबलाइजेशन के लेंस से झाँककर यदि देखें , तो यहाँ का किसान ...ऐसा लगता है कि पुरा पाषाणकाल में से निकलकर कोई आदिवासी आ पहुँचा है। लगता है कि ....इन्हें गुलाम बनाकर सिर्फ़ खेती करवानी चाहिए। ताकि हम वैश्वीकरणका शुक्रिया अदा कर सकें। आईटी क्रांति को दोनों कन्धों पर उठाकर नाँच सकें।
सामने नीचे बैठा ...विदर्भ के ही किसी स्वर्गीय किसान का बेटा , संग-संग नाच रहे ग्लोबलाइजेशन की बलइयां ले सके।