Friday, 16 July 2010

मुरली को यूँ न जाने दें...

बहुत कुछ नहीं लिखा गया, जिसका लिखा जाना जरूरी था। हम मुरलीधरन को ऐसे विदा नहीं कर सकते। उनमें जो बात थी, वह आने वाले वक्त के क्रिकेट खिलाडिय़ों में कभी भी होगी, इसमें मुझे संदेह है। मुरली श्रीलंका की शान रहे। अगर गलत नहीं हूं तो भारत के दामाद हैं। उनकी जिस खास बात और छवि को मैं इंगित कर रहा हूं, वह अलग तरीके से समझी जा सकती है। अगर कुछ नाम लिए जाएं तो मन में क्या उभरता है? सोचना।

कर्टली एंब्रोस, कर्टनी वॉल्श, वसीम अकरम, वकार युनूस, इमरान खान, रॉबिन सिंह, अजय जडेजा, जोन्टी रोड्स, हैंसी क्रोन्जे, एंडी फ्लॉवर, राहुल द्रविड़, सचिन तेंदुलकर, एलन डोनाल्ड, शॉन पोलाक, ग्लेन मैक्ग्राथ, मार्क वॉ, स्टीव वॉ, अनिल कुंबले, शेन वॉर्न और मुथेया मुरली धरन। ये सिर्फ कुछ एक नाम हैं। मगर ये सिर्फ नाम भर नहीं है। इनके साथ मेरी जिंदगी जुड़ी हुई है। मेरी जिंदगी के अमूल्य पल। इनकी छवियां मेरे लिए एक पूरे दौर को इंगित करती हैं। उस दौर को, जिसमें मैं 14 साल का था, या 9 साल का था, या 11 साल का था, या 16 साल का था। जब मैं कर्टली एम्ब्रोस का नाम लेता हूं, तो उसी के साथ एक 7 साल फुट लंबा और बड़े-बड़े होठों वाला एक कूल अश्वेत गेंदबाज मस्तिष्क में कहीं उभरता है। उसके दौडऩे, दौड़कर आने, गेंद फैंकने और बल्लेबाज के बल्ला घूमाने के बाद प्रतिक्रिया व्यक्त करने का अंदाज एक नायकीय तत्व का निर्माण करता था। उस नायकीय छवि से ही तो एक फिल्म सी दिमाग में बनती जाती थी। सोचते थे कि यार, ये देखो कर्टली एम्ब्रोस आ गया दौड़ता-दौड़ता। अब देखना गोला फैंकेगा। बेट्समेन तो गया। ऐसे में अगर सचिन जैसा बल्लेबाज चौका या छक्का मार देता, तो बल्लेबाज नायक बनकर उभरता। कि, यार क्या मारा है। कमाल कर दिया। समझने की बात ये है कि तब मैच के दौरान समानांतर रूप से दिमाग में फिल्म बनती चलती थी, हमारे व्यक्तिगत हीरो और विलेन होते थे, समानांतर ही जहनों में एक फैंटेसी चला करती थी और फिर एक-एक गेंद आनंदोत्सव बनती जाती थी। आज वह बिल्कुल गायब है। बिल्कुल ही गायब है।

रॉबिन सिंह क्या 'एंग्री यंग मैन यट सोबर जेंटलमेन' लगते थे। धांसू फील्डर यानी गर्व किए जा सकने वाले क्षेत्र रक्षक। आज गिना दो एक भी। वो रॉबिन सिंह, अजय जडेजा, जोन्टी रोड्स, शॉन पोलाक जैसों की ब्रीड, वो प्रजाति आज कहां है। कहीं नहीं। रॉबिन सिंह सिर्फ खेलते थे, और क्या खेलते थे। बड़े शॉट्स ज्यादा नहीं मारते थे, मगर एक-एक, दो-दो से ही जीता जाते थे। क्रूशल टाइम यानी परीक्षा की घड़ी में कैच लपक लेते थे। कद-काठी में हमारे घर के ही किसी काका जैसे लगते थे। एक ऐसे आदमी की तरह जैसे जो गली में हमारे पास से गुजर जाए और हमें पता भी नहीं चले। यहीं तो बात थी। आज क्रिकेटरों से हमारी दूरियां असीमित रूप से बढ़ गई है। उनसे हमारा कोई नाता नहीं लगता। वे लोग तो आसमान में जा बैठे हैं, हम वहां तक नहीं पहुंच सकते। रॉबिन सिंह और कर्टली एंब्रोस जमीन पर ही रहते थे। हमारे बीच के थे।

ऐसे एक-एक खिलाड़ी के नायकीय तत्वों पर बातें करते हुए आगे बढ़ा जा सकता है। उन्हीं में से एक नाम मुथैया मुरली धरन का है। जमीनी आदमी। फिरकी का अंदाज भी ठेठ देसी लगता था। कद-काठी औसत से भी औसत। दर्शक दीर्घा में दर्शक बनकर बैठ जाए तो कोई कंधे पर हाथ मारकर बोल बैठे यार मुरली होता तो ये विकेट यूं ले जाता। मुरली की गेंद क्या घूमा करती थी। कभी कभी तो 45 से 60 डिग्री तक भी। एकदम चक्करघिन्नी की भांति। बेट हाथ में लेकर खड़े खिलाड़ी भी सोचते कि ये दैत्य कहां से आया है। कहीं श्रीलंका के पौराणिक किरदार रावण जैसी ही कुछ अदृश्य शक्तियां तो नहीं हैं इसमें। हम बच्चों के मन में तो रावण से मुरली की शक्तियों को जोड़कर देखने की फंतासी हर मैच में होती रहती। टीम के अन्य 10 खिलाड़ी एक तरफ और मुरली एक तरफ। फिर जब कभी सुनते की नवजोत सिंह सिद्धू ने एक दौरे में मुरली की गैंदों को खूब सीमा पार पहुंचाया, तो सिद्धू के प्रति मन में नायकीय तत्व और श्रद्धा पैदा हो जाती।

आज जब मुरली धरन क्रिकेट से सन्यास लेने की बात कह ही चुके हैं, तो ये सभी दौर, सभी नायकीय छवियां, सभी यादें जीवित की जानी जरूरी है। बेहतर हैं, सभी बच्चे अपने बचपने को जोड़कर देखें और याद कर लें। कि कैसे टीवी के सामने बरसात के दिनों में बैठते थे। सामने हॉल का दरवाजा खुला होता था। खिड़की खुली होती थी। बरसात आ रही होती थी। शाम के 4 बजे, श्रीलंका-भारत का मैच स्टार स्पोर्ट्स पर और कभी भारत-वैस्टइंडीज पर मैच ईएसपीएन आ रहा होता था। मां 'अदरक-इलाइची-काली मिर्च-गाय के ताजे दूध' से बनी गर्म-गर्म चाय लाकर देती थी। साथ में कभी घी में सेंकी हुई ब्रेड होती थी, तो कभी बेसन के 'हरी मिर्च-प्याज-आलू' के पकौड़े होते थे। फिर चाय की चुस्कियों और नमकीन पकौड़ों के साथ मैच चलता। मैच के साथ चलती नायकीय छवियों वाली फिल्में। मन में। नसें खून को तेज दौड़ातीं, खून खौलता, दिल में खुशी का करंट प्रवाह दौड़ जाता, मौहल्ले भर से आवाजें आती रहती। आनंद ही आनंद। आज जिंदगियां हमें गंभीर और चिंतित करने पर तुली हैं। चाय-पकौड़े और मैच वाली यादों के साथ भाई-बहनों की लड़ाई, मां के हाथ झाड़ू से पिटाई, दोस्तों के साथ मैच से पहले या बाद में खेल-खिलाई, पिता के घर में प्रवेश करने पर भाग-भगाई और साथ धक-धक दौड़ता मैच का स्कोर जैसी अप्रतिम यादें भी हैं। अब इन्हें याद करने का स्वर्ग सुख क्यों जाने देते हैं? मुरली जा रहे हैं। जैसे एंब्रोस, वॉल्श, रोड्स, सिंह, क्लूजनर और कुंबले चले गए। जैसे आज कठिन है, उनके दौर से जुड़ी हमारी यादों को टटोल पाना। तो मुरली के वक्त से जुड़ी यादों को तिजोरी में से निकालकर धूप में सूखने दीजिए और अपनी ही दिमागी फिल्मों में खो जाइए।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday, 31 May 2010

'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' .... और मृत्यु

मैं यह समझता हूं कि ये सब दिमागी मेहनत की बात है। जमाना नया आ गया है, मगर लोगों के सोचने और यकीन करने का तरीका पुराना है। लोग गांधीवाद को मानते हैं। मगर गांधी टोपी की जगह गांधी-मग और गांधी-टीशर्ट खरीदते हैं। संयम, स्वदेश और लघु-उद्योग धंधों के पेरोकार गांधी को ब्रांड के तौर पर 'मो ब्लां' के 60 लाख के पेन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। चे गुवेरा अपनी समाजवादी, साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई को लेकर जंगलों में भटकते रहे और मार दिए गए, मगर आज का युवा वर्ग चे-ब्रांड वाली टीशर्ट को पहनकर ऐसा महसूस कर लेता है, मानो कहीं आंदोलन करने जा रहा है।

ये बात उस धुंध को कुछ समझने की है। ये उस संकरित व्यवहार को समझने की है, जो संकरित व्यवहार पुराने ख्यालात और संस्कारों से पोषित बच्चों और उनके सामने खड़े सपाट विश्व-बाजारीकरण-टीवी-पूंजी की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा हुआ है।

ऐसा ही कुछ पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों-अधेड़ों के साथ है। उनके दिमाग को समझना बड़ा जटिल काम होगा। पढऩे, लिखने, वोट डालने, घूमने जैसी हर आजादी देने के बाद प्यार करने की आजादी के नाम पर इन मां-बाप को अपनी परंपराओं-संस्कारों और इतिहास के दूषित हो जाने का डर सताता रहता है। इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं नजर आता है कि लड़की पत्रकार हो गई है। लड़की सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो गई है। आखिर है तो अभी भी अपनी पैदा की हुई संतान ही।

कई सवाल और सोच भी संभवत: बुजुर्गों के मन में घूमती रहती होगी। अब लड़की तो दिल्ली में बढऩे चली गई। पढ़ लिखकर कुछ बड़ी-नामवाली बन भी गई, मगर। मगर मां-बाप तो अभी भी दूर-दराज के राज्य के वासी ही है। उनके आस-पड़ोस रहने वाले तो महानगरीय नहीं हुए। समाज बसा है। इज्जत बनी है। इन्हीं मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के चलते हरियाणा, राजस्थान की खांप पंचायतों ने अपनी सोच के ईर्द-गिर्द एक रेखा खींच ली है। इस रेखा के आर या पार आना-जाना इनकी बर्दाश्त से बाहर है। ये बात ओर है कि जान देकर भी लोग इसके अंदर या बाहर जाने से खुद को रोक नहीं पाते। प्यार करने से खुद को रोक नहीं पाते।

निरुपमा की मृत्यु की खबर दरअसल 'लव सेक्स और धोखा' फिल्म के प्रदर्शित होने के कुछ दिन बाद ही आई। इस फिल्म के आने का वक्त अपने लिहाज से काफी सही है। ये बात ओर है कि इस पर किसी ने गौर नहीं किया कि किस गंभीर तरीके से इसे फिल्म में पेश किया गया है। समाज से जुड़ी तीन खबरों को दिमाग में रखकर दिबाकर बेनर्जी ने 'एलएसडी' बनाई। इनमें एक खबर निरुपमा की कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। प्यार होता है, प्यार के सपने लिए जाते हैं, मां-बाप भी बेहद प्यार करते हैं, लड़की प्यार में पागल है, समझदार है, मगर इसके नतीजों की हदों से अंजान है। अंत में होता वही है। मां-बाप मान जाने के बहाने दोनों को बुलाते हैं और कुल्हाड़ी से उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। दिबाकर बेनर्जी की एलएसडी की ये कहानी और निरुपमा की कहानी इस बात को साफ कर देती है कि आज समाज और सदी के बदलते चेहरे में प्यार करना 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के राज और सिमरन की कहानी नहीं रह गई है।

या तो समाज के पुराने वृक्षों को समझाइए। वही वृक्ष जिन्होंने हमें जन्म दिया है। या फिर उनके समझदार होने इंतजार कीजिए। अगर इंतजार नहीं कर सकते हैं तो फिर मौत तय है। हरियाणा के किसी खेत की सूखी खेजड़ी में आपकी और आपके प्रेमी की लाश लटकी मिलेगी। या, आपको दिन-दहाड़े पत्थरों से मार-मारकर खत्म कर दिया जाएगा। ठीक कुछ पश्चिम एशियाई देशों के सामाजिक कानून की तर्ज पर। या फिर एक दिन खबर आएगी की आप नहीं रही हैं। या तो आप पंखे से लटक गई हैं, या आपको जहर दे दिया गया है या आपके मुंह पर तकिया रखकर आपको इस संसार में लाने वालों ने विदा कर दिया है। बस पीछे बचेगा तो निर्मोही अफसोस।

वाकई यह एक खतरनाक स्थिति में हम है। जहां, एक खास पीढ़ी और समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के दिमाग पर एक बेहद खास किस्म के मनोविज्ञान की परतें चढ़ी है। जिसके चलते उन्हें एक 'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' की परवाह ज्यादा है। अपनी औलाद की जान की कम। समाज क्या कहेगा इसका डर उतना ही ज्यादा है, जितना कि एक भंयकर गलती करने का कम।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Wednesday, 26 May 2010

'मैं नहीं समझता कि..... नक्सली आतंकी हैं.

मैं नहीं समझता कि घर के ही हिंसक हो गए। मैं यह भी नहीं मानता कि संबंधित लोग क्रांतिकारी या आतंकवादी हैं। दरअसल इन बातों को करने से पहले एक स्थिति है।

स्थिति यह है कि कोई अंबानी-बंबानी अपने तिमाही-छमाही या सालाना शुद्ध मुनाफे को कई गुना यानी हजारों करोड़ रुपये बढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह किसी राज्य की सरकार के साथ एमओयू यानी मैमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग यानी समझौता पत्र पर दस्तखत करता और करवाता है। सरकार अपने और अपने शासन की उपलब्धियों या जीडीपी को धन से आंकती है। कि, भई देखो फलाणी सरकार ने 65,000 हजार करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित किया है। या देखो राज्य का विकास किया है, 1,00,000 करोड़ रुपये का निवेश जुटाया है।

जनता को क्या पता चलता है? बस उतना ही जितना सरकार बताती है। लोग सुबह अखबार में ऐसा पढ़ते हैं, अपने 21वीं सदी में जाने और विकास दर के मुस्तैद रहने का सा अनुभव करते हैं और काम पर चले जाते हैं। इसके कुछ दिन बाद उन्हें खबर आती है कि इलाके में नक्सलियों का आतंक बढ़ गया है। और सुनने में आता है कि नक्सली दरिंदे हैं, रक्तपिपासु हैं। फिर सुनने में आता है कि इलाके के लोगों ने नक्सलियों से खुद निपटने की ठानी है। इस सोच का नाम 'सल्वा जुडूम' (इसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी और सरकार की निजी नागरिक-सेना यानी मिलिशिया करार दिया) है। इसमें सरकार लोगों की मदद कर रही है और सरकारी हथियारों से लैस आदिवासी लोग सरकारी शिविरों में रह रहे हैं और नक्सलियों को धूल चटा रहे हैं। फिर सुनने में आता है कि नक्सलियों ने पुलिस जवानों से भरे ट्रक को उड़ा दिया है, इतनी औरतों को विधवा कर दिया। देश में बहसें होनी शुरू होती है और वाक्य उभरता है, क्या नक्सली आतंकवादी हैं?

अब हम सभी ने राज्य में निवेश की घोषणा और नक्सलियों द्वारा ट्रक को विस्फोट से उड़ाए जाने की खबर के बीच 'बहुत कुछ' खो दिया। या, जानबूझकर उस बहुत कुछ का पता ही लोगों को नहीं लगने दिया गया। आखिर विशाल अंतरराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों-करोड़ रुपये अपनी पीआर और मीडिया मैनेजमेंट एंजेंसियों पर यूं ही खर्च तो नहीं करती। तभी तो टाटा जी हमें ब्रह्मस्वरुप और निर्मल नजर आते हैं। अनिल जी हमें विनम्र नजर आते हैं। ललित जी हमें खेल कारोबार के इतिहासपुरुष लगते हैं। और कुछ वक्त पहले तक सत्यम ही हमें कॉरपोरेट दुनिया की असल पवित्रता नजर आती थी।

असल में ये हैं क्या? हम नहीं जानते और जान भी नहीं पाएंगे। तभी तो केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को मंत्रालय दिलाने और कॉरपोरेट घरानों को लाभ दिलाने में सुपर दलाल नीरा राडिया का नाम सबूत समेत सामने आया। इसमें देश के शीर्ष पत्रकारों बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम भी कांग्रेस में ए राजा के पक्ष में लांबिग करने में ठोस तौर पर सामने आया। अब राजा जी 70,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की 3जी आवंटन मुहिम के कर्ता-धर्ता है। कंपनियां 3जी लाइसेंस पाने के लिए दीवारों के पीछे भी तो सरकारी और निजी हाथों में कई करोड़ रखती हैं ना। मगर, देखिए कहीं कोई जूं भी नहीं रेंगी। सब वैसे के वैसे ही हैं। आखिर नक्सलियों की एक महीन सी अच्छाई सामने नहीं आ पाती है और इन सज्जनों या दुर्जनों का एक भी अवगुण (छोटा-बारीक या कम से कम महीन ही) आम आदमी को क्यों नहीं मालूम हो पाता है?

कुछ वक्त के लिए मैं बस मान लेता हूं कि मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं, जहां प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक धन संपदा है, जंगल हैं, हरियाली है। मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं जहां मेरे पुरखे जन्में और दफन हुए। जहां की मिट्टी मेरी रग-रग में समाई है। जहां कि शुद्ध हवा के बिना में जी नहीं सकता हूं। और सदियों से यही मुझ जैसे मेरे पूरे समाज की रिहाइश है। जंगल ही मेरी ऑक्सीजन है। मुझे मेरे जंगलों से अलग करने का मतलब मेरी हत्या करना है।

अब पहुंचते हैं सरकार द्वारा हजारों करोड़ का निवेश आकर्षित करने की घोषणा वाले दिन पर। क्या हम जानते हैं कि निवेश कौन कर रहा है? क्यों कर रहा है? कैसे कर रहा है? और किस कीमत को लेकर कर रहा है? उस निवेश की एवज में हमें क्या देना होगा? नहीं जानते हैं। निवेश में कितनी पारदर्शिता बरती जा रही है? निवेश की घोषणा के वक्त खनन के इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से क्या पूछा गया?

नकी पवित्र नियामगिरी की पहाडिय़ों पर खुदाई शुरू हुई, मगर संविधान में लिखा है कि स्थानीय रहवासियों से पूछ बगैर आप खुदाई नहीं कर सकते हैं। मगर, सब खोद दिया गया और खोदा जा रहा है। मधु कोड़ा पहले ऐसे निर्दलीय थे, जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री बने। खबरें आई और दब गई कि खनन माफिया ने सरकार बनवाने और इससे पहले की सरकार गिरवाने में करोड़ लगाए। दक्षिण में रेड्डी भाइयों का राजनीति और खनन में फैला साम्राज्य भी 'द इंडियन एक्सप्रेस' में एक सीरिज के तौर पर सामने आया। इसमें ठोस तौर पर बारीक से बारीक सबूतों के साथ खबर दी गई। मगर कहीं किसी के चींचड़ भी नहीं लगा, जूं भी नहीं रेंगी।

और न जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि सफेद कुर्ता पहने लोग लाखों को उजाड़ देते हैं, टाई और काला कोट पहने करोड़ लगाकर अरबों का खोद लेते हैं और धन के नाले बहते रहते हैं। यह सब ऊपर ही ऊपर होता रहता है। मगर सवाल बनता है तो बस ये कि क्या नक्सली आतंकवादी हैं? और, सरकार उनपर हवाई हमला आखिर कब करेगी? आर नॉट वी गेटिंग लेट?

राज्य सरकार विदेशी-स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लालच और अपनी जेब भारी होने की एवज में राज्य पर एक तरह से राज करने की छूट दे देती है। बहुराष्ट्रीय कंपनी सीधे उन जंगली इलाकों में जाती है, जहां आदिवासी और प्रिमेटिव लोग शांति और सुकून से रहते हैं। वहां की जमीन अभ्रक, बॉक्साइट और लोहे जैसी अमूल्य धातुओं से युक्त है। कंपनी 4 रुपये देगी और 40 की जमीन खोदेगी। इससे 36 रुपये का फायदा कंपनी के मालिक को होगा। यानी अंबानी-बंबानी अपनी बीवी के अगले जन्मदिन पर 500-1000 करोड़ रुपये का चार्टर प्लेन गिफ्ट कर सकेंगे या फिर बंबई के पॉश इलाके में दुनिया का सबसे महंगा 40 मंजिला घर महल बना सकेंगे। उस प्लेन में बैठेंगे कितने ? 2 जने, और उस घर में रहेंगे कितने ? 6 जने। मगर उस जंगल से उजडेंगे कितने 2 लाख या 6 लाख लोग। और, साथ ही उजड़ेगी वहां की प्राकृतिक संपदा, शुद्ध हवा।

अब मुझे बताइए कि जब आप मुझे मेरी ऑक्सीजन से अलग कर देंगे। मुझे कॉर्नर में कर देंगे। मेरे पास न शारीरिक बल है, ना हि राजनीति-संविधान की समझ। मैं वैसा अपराधी भी नहीं हूं, जिसे कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर कानून तोडऩा आता हो। मैं वो भी नहीं हूं जो धड़ाधड़ अग्रेंजी बोलकर सेलेब्रिटी बन सकता हो। जो राष्ट्रीय खबरिया चैनलों के फिल्मनुमा डिबेट कार्यक्रमों में शानदार भाषा-शैली में डोमीनेट कर सकता हो। जिसे संविधान और राष्ट्र के नाम का भ्रामक संदर्भ देकर स्टूडियो में बैठे और टीवी के जरिए देख रहे करोड़ों लोगों को ब्रेनवॉश करना आता हो। मैं तो इनमें से कोई भी नहीं। और, ऊपर की बातों में जैसे मीडिया मैनेजमेंट और कॉरपोरेट फ्रॉड के उदाहरण और उनके नतीजे हैं, उनसे तो साबित हो ही जाता है कि कोई ऐसा रास्ता बचता ही नहीं है जिसपर चलकर कोई भी साधारण आदमी इंसाफ का ख्वाब भी ले सकता हो। फिर मैं तो एक जंगल में रहने वाला आदमी हूं, जिसे शहर का मतलब भी नहीं पता।

किसी बंदर के बच्चे को कोने में घेरकर नुकीले तीर या लकड़ी से घोपेंगे, तो वह रोता हुआ, कराहता हुआ, बद्दुआएं देता हुआ आखिर क्या करेगा? उसे तो एक हद तक आक्रामक होकर मारे जाने के अलावा कुछ आता भी तो नहीं है ना। उसके मर जाने पर अगले शिकार की ओर बढ़ा जाता है। और, अगर गलती से भी वह हजारों हमलावरों में से एक को भी मार पाता है तो उसे खूंखार और आदमखोर कहकर प्रचारित किया जाएगा। और, पूरे समुदाय को इन दो शब्दों के सहारे आंदोलित किया जाएगा। बाद में उस बेजान को भरे राष्ट्रीय दोराहे पर चीर दिया जाएगा।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Tuesday, 16 March 2010

'काली पट्टी बाँधे एक कमर्शियल वेंचर आईपीएल'

आईपीएल को इस सकारात्मक नजरिए से देखना जल्दबाजी और गलत होगा। यह एक कमर्शियल वेंचर या व्यावसायिक उद्यम है। इसमें राजस्थान में हुई एक दुर्घटना के प्रति सहानुभूति जताने के लिए अगर बाजू पर काली पट्टी बांधकर खिलाड़ी खेल रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे इसे सहानूभुति प्रकट करने या पीडि़तों के साथ खड़े होने के लिए ऐसा कर रहे हैं। इसका एक कारण मैनेजमेंट बोर्ड और मार्केटिंग की टीम की सोच भी है। वह सोच व्यावसायिक कारणों से शुरू होकर वहीं पर खत्म हो जाती है।

यह ऐसा मौका है, जब बिना ज्यादा प्रयास किए बहुत कुछ पाया जा सकता है। आईपीएल की टीमें दरअसल विश्व भर के खिलाडिय़ों को मिलाकर बनाई गई है। राजस्थान रॉयल्स में कितने राजस्थानी है? यह सभी जानते हैं। अब क्रिकेट, बेसबॉल, बॉस्केटबॉल, हॉकी, कुश्ती या कबड्डी कोई भी खेल हो, इसमें एक बात स्पष्ट होती है। यह कि खेल में दर्शक के पास एक अपनी टीम होनी चाहिए जो क्षेत्र, राष्ट्र, रंग, जाति या किसी निजता के कारण उससे जुड़ी हो। जिसकी जीत-हार से उस देखने वाले पर फर्क पड़ता हो। एक बार जब कोई टीम उसकी अपनी हो जाती है, तो फिर उसके बाद वह बंध जाता है। नैतिकता व अन्य मनोवैज्ञानिक दायित्वों से।

आईपीएल से पहले हमारी टीम थी, भारत की टीम। या रणजी के रुप में हमारे राज्य की टीम। मगर आईपीएल के सभी खिलाड़ी राज्यों के नाम की टीमें होने के बावजूद राज्य के नहीं थे। इसलिए फिल्म कलाकारों को टीमों का मालिक बनाया गया, ताकि जनसमुदाय को बटोरा जा सके। उन्हें समर्थकों में बांटा जा सके। टीमों के अनावरण के वक्त राज्यों और स्थानीयता की मुहर टीमों पर लगाने के लिए चेन्नई की टीम का झंडा उठाने के लिए मीडिया के सामने दक्षिण के फिल्म सितारे को खड़ा किया गया। और अब ऐसा शोक का मौका भुनाया गया।

इंडियन प्रीमियर लीग मुनाफे का धंधा है। मुनाफा मनोरंजन से जुटाया जाता है, तो ललित मोदी ने शाहरुख खान को लिया, शिल्पा शेट्टी को लिया, प्रीति जिंटा और कारोबारियों को लिया। क्रिकेट का तत्व कहीं हल्का पड़ा, तो इन सेलेब्रिटियों के चेहरे काम आएंगे। चीयरलीडर्स भी लाई गई। अमेरिका के एनबीए व बेसबॉल की व्यावसायिक लोकप्रियता से काफी प्रभावित ललित मोदी ने पूंजी बटोरने के सारे तत्व वहां से लिए। मल्टीप्लेक्स आपकी जेब कब खाली कर देते हैं? और कैसे कर देते हैं? आप सोचते ही रह जाते हैं। पर इनका मुनाफा कमाने का समीकरण ही ऐसा है।

आईपीएल का सामाजिक विश्लेषण जरूरी है। लोगों से ऐसा करने की कुछ उम्मीद है। कितनी बड़ी विडंबना है कि राजस्थान के सवाईमाधोपुर में एक सूखे तालाब में पुल से गिरी बस में जो 26 युवा मारे गए, उनको या उनके बिलखते परिवारों को सहानुभूति देने वाला मौका क्या था? जरा देखिए। चीयरलीडर्स ठुमका रही थीं। स्टेडियम की जालियों के पीछे बैठी भीड़ तालियों से चौकों-छक्कों का स्वागत कर रही थी। चारों और उत्सव का सा माहौल था।

तो क्या हमें खुश होना चाहिए? कि देखो यार कितने भले लोग हैं राजस्थान रॉयल्स के। राजस्थान की माटी से जुड़े हुए हैं। दर्शकों को भी तो एक कारण चाहिए ना। एक ऐसा कारण जिसके बूते वह अपनी क्रिकेट टीम के इस कदम को रोमेंटिसाइज कर सके। इस मैच में उतरे खिलाडिय़ों के बाजू से बहती भावनाओं से फिल्मी फंतासी गढऩे में दर्शकों को खूब मजा भी तो आता होगा ना। पूंजी के इस महाखेल को कभी कर्मयुद्ध तो कभी धर्मयुद्ध करार दिया जाता है। क्या मजाक है?

एक आईपीएल के विज्ञापन का जिक्र किया गया था, जिसमें एक लाल चटाई पूरे देश को पिरोती हुई गुजरती है। बता दूं कि वह विज्ञापन भी मौलिक नहीं था। उसकी संकल्पना तो चुराई गई ही थी, मगर बड़ी बेशर्मी से कुछ दृश्य भी मार लिए गए।

तो कहना यही है कि पूंजी का खेल है। समाज में कुछ चीजों को बड़ी ही चतुराई से प्रवेश कराया जा रहा है। एक किस्म की संस्कृति विकसित की जा रही। पूरा का पूरा मर्चेंडाइज फ्रैंचाइजी खड़ा हो रहा है, होगा भी। पटकथाएं लिखी जानी है। दर्शकों के खाने-पीने के सामान के लिए स्टेडियमों में महंगे टेंडर उठेंगे। परदे के पीछे और मेजों के नीचे नोट दिए जाएंगे। कुछ विशेष चीजें कूल होंगी, कुछ विशेष चीजें हॉट होंगी। बाकी सब को औसत होने पर कौसा जाएगा। बहुत कुछ होगा। बस जिस भावना से तुमने इस वाकये को देखा है, वही भावना इस शोक की घड़ी का इस्तेमाल करने वालों में नहीं होगी।

('हार कर भी जीते राजस्थानी रॉयल्स ' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। http://khel-khelmein.blogspot.com/2010/03/blog-post_16.html )

गजेन्द्र सिंह भाटी

Monday, 15 March 2010

'पुरूषवादी गंदली काई में चंडियां'

('नारी तूं नारायणी' लिखने वाले युवा मित्र के लेख के जवाब में। www.discussiondarbar.blogspot.com )

हैं, कुछ बातें सही हैं। कहने का तरीका आक्रामक और बेपरवाह किस्म का है। कुछ फ्रस्ट्रेशन भी है। बहुत सी बातें खारिज करने लायक हैं। पुरूषवादी मानसिकता साफ झलकती हैं। साफ लगता है कि मनन करने की आदत नहीं है। विचारों को कॉपी-पेस्ट करने में यकीन करते हो। यहां से पढ़ा, वहां लिखा। यहां से सुना, मानकर वहां कहा। इस तरह से। यह रोग युवाओं में बड़े पैमाने पर लगा है। और युवाओं में ही क्यों, समाज में जन्मने वाले शिशु से लेकर अर्थी में लेटने वाले बूढ़े तक सभी तो उम्र भर अपने भेजे को सुलाए ही रखते हैं। शिक्षा ही ऐसी है, क्या करें? अपनी सोच विकसित करने, नए प्रयोग करने, ज्यादा से ज्यादा सवाल पूछने और अभिनव प्रयोग करने को तो इन समाजों में हतोत्साहित ही किया जाता है।

पंचायतों में सच है कि सरपंच महिलाओं के पति ही असली सरपंच हैं। पर इसी बहाने वह औरत घर से बाहर तो आई। मसलन, राजस्थान की एक छोटी जगह, एक छोटे से गांव, एक पिछड़े गांव में एक ऐसी लड़की सरपंच है, जो लेडी श्रीराम कॉलेज दिल्ली में पढ़ी है। अंग्रेजी में पढ़ी-लिखी है (यह उदाहरण इस लिए कि एक समाज के रूप में हम अंग्रेजी बोलने वाले को सफलता का पर्याय मानते हैं।) जींस और शर्ट पहनती है। घोड़े की सवारी करती है। और यह सरपंच लड़की हर वो काम करती है, जो एक पुरूष सरपंच नहीं कर पाता।

तो यह लड़की सरपंच क्यों बनी? इसके मन में ये ख्याल भी कैसे आया? वह डुंगरपुर की महिला कलेक्टर (संभवत: अंजू) की तरह कलेक्टरी करके लोगों की सेवा और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के काम से जुड़ सकती थी। बहुराष्ट्रीय कंपनी में करोड़ के पैकेज पर नौकरी कर सकती थी। सवाल यह भी है कि आज से पहले कितनी लड़कियां एलएसआर से आई हैं। यानी सरपंचाई में औरतों को मुखरता मिलने से पहले ऐसे मामले कितने थे। चक्कर यह है कि पुरुषों की मूछों के बाल नीचे जो हो जाते हैं, इसलिए उनका सारा ध्यान महिलाओं को उनके साथ एक ही जाजम पर नहीं बैठने देने का होता है।

आरक्षण का जहां तक सवाल है, तो वह मिलना ही चाहिए। क्यों नहीं मिले? सदियों तक चूल्हे में फूंकनी मारते-मारते अपनी सांसें जला बैठी औरतों की कौम को जानबूझकर पीछे रखे जाने का मुआवजा तो देना ही होगा। शराबी पति की गालियां सुनती, मुहल्ले भर के सामने मानमर्दन झेलती, सास की प्रताडऩा से तिल-तिल मौत मरती, अपने जिस्म को ढांपती (पुरूष को अपनी कमर के नीचे के हिस्से को खुजाते हमेशा देखा गया, क्योंकि उसे खुजली होती है। अगर एक महिला अपने किसी भी अंग को खुजाए तो यह सैक्स के लिए आमंत्रण बन जाता है। क्या व्यंग्य है? क्या बकवास है।) और अबला होने का संताप लिए मर जाती नारी को नारायणी कह देने से ही कुछ नहीं होता है। पुरूष का शादी से पहले दसों को नीचे से निकाल देना दोस्तों के बीच हांकने वाला अचीवमेंट होता है। पत्नी के शादी से पहले संबंध रहे हों, तो इन्फोसिस में काम करने वाला भी आत्महत्या कर लेता है। बेअक्ल।

आरक्षण गांव की औरतों के लिए वरदान ही तो है। कलेक्टर, जिला अधिकारी, पुलिस अधिकारी, चुनाव अधिकारी, नरेगा, आरटीआई, निर्माण कार्य, फंड, बैठकें, सार्वजनिक सुनवाइयां, लोगों से मुलाकातें और एक सरपंचनुमा पदवी (बाकियों की भाषा में डेजिगनेशन) के साथ जीना कैसे होता है? यह जानना क्या व्यर्थ है? नहीं यह बड़ा पुरस्कार है, बड़ी हसल है। संसद में आरक्षण के लिए देश को अस्थिर कर देने वाले महिला आरक्षण से डर रहे हैं। हालांकि इस पर कई बातें हो सकती हैं। यही आखिरी सत्य नहीं है। दूर-दराज के सामाजिक जंगल में सदियों में जमी पुरूषवादी गंदली काई को घिस-घिस कर हटाने के लिए तेजाब चाहिए। और आरक्षण तो सिर्फ बर्तन धोने वाली साबुन और ब्रश है। फिर भी यह काम करेगा।

जन्म देने वाली मां को बस में भारी भीड़ में सबसे धक्के खाते देखना दिलचस्प होगा न? कोई उसे बैठने के लिए सीट दे या न दे? क्या फर्क पड़ता होगा ना? औरतों को कुछ विशेष देने की क्या जरूरत है? क्यों? तुम्हारी बहन अगर आगे बढ़े तो कैसा लगेगा? अगर पुराने विचारों से लैस नहीं हो तो बताना।

बात इतनी सी है कि कभी-कभी अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर सोचना पड़ता है। इसने सालों से दिमाग पर जो पूर्वाग्रहों की परत जमी है, उसे हटा पाना दु:खदायी अभ्यास है। हर किसी के बस में नहीं है। ये ऐरे-गेरे हमारे जैसे औसत लड़के सलवार-कमीज-चुन्नी में चोटी गूंथ कर जा रही कस्बाई लड़की को तो छेड़ेंगे, उस पर फिकरे कसेंगे। मगर मल्लिका सहरावत जैसी बोल्ड लड़की के सामने दुम दबा लेंगे। उससे बात भी नहीं कर पाएंगे। कई चंडियां ऐसी हैं, जिनके आगे नहीं पसरने के अलावा इन मर्दों के सामने चारा नहीं।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Wednesday, 24 February 2010

Am I the superior race?

Life in Delhi has been difficult for Linda. Anywhere she goes she gets to hear lewd comments. Her only fault – she possesses all the features of a girl from north east India. Infact anybody from this part of the country is addressed to as “chinkies” – now definitely for their mongoloid eyes. Can we call this racism ? Writes Mercy Barkakoty...

Linda is a young and ambitious girl hailing from one of the beautiful states in North East India. Her parents have dreamt of a bright future for their daughter. To fulfill her dreams she has come to Delhi. Still in her twenties Linda studies in one of the reputed colleges in Delhi University. But the capital city has not given her a warm welcome. Life in Delhi has been difficult for her. Anywhere she goes she gets to hear lewd comments passed at her by people. Her only fault – she possesses all the features of a girl from north east India. Infact anybody from this part of the country is addressed to as “chinkies” – now definitely for their mongoloid eyes. Can we call this racism – the same word with the same meaning that everybody hates but yet is so prevalent in the country?

The country burns, political parties fight and protests take place when an Indian is abused in Australia or UK or the USA. But do we really care when the same thing happens within the country. Political parties opposed playing with the Australian team, the foreign ministry and the Home ministry had endless debates and discussions with their foreign counterparts to respond immediately to the plight of the Indians in Australia. But again they fail to stop racism in their own country.

This is not just the plight of Linda but of all those thousands of north eastern students especially girls, who come to Delhi every year for a fresh new beginning in their life. A lot of cases in the past have reflected the sorrowful state of the people from this region. Horrific tales of rape, molestation, abuses speak for itself – while some have been solved, some still remain in the files with just a number.

Huge uproar by the student community demanding stricter measures against such practices have put a lot of pressure on the government. Of late the Sheila Dixit government has been trying hard to curb such evils. Simultaneously a lot of women help numbers have also been activated for faster improvements. But it is not that always there has to be policemen present everywhere to check all these. What needs to be taken into account is the mindset of the people. I truly believe that a society can progress with a progressive mindset.

Laws can only help. So here I leave the floor open for answers and comments from my readers to find out for itself, the steps needed to be taken to prevent such malpractices. Is regionalism playing a dominant role over universal brotherhood? Is the fact that India is a diverse country with so many people with different and unique features hard to digest? Is it that higher education leading to narrower thinking? Or is it that we simply want to mind our own business rather than raising a voice against such evils in the society?

The answer lies in our mind and we know it। Otherwise who knows today, it is Linda who is suffering, tomorrow it might be us – same problem in a different place, in a different situation, in a different environment!! Let’s give it a thought.

(Mercy is a Journalist based in Delhi. She did her English Journalism from Indian Institute Of Mass Communication (IIMC, New Delhi). She worked in a prestigious Publication House in Delhi. At present she's with one of the leading English news dailies in the country. Having a good experience of working with various NGO's specifically in North-East, She loves her motherland and takes great pride in writing about issues pertaining to North-Eastern part of India.)

Sunday, 21 February 2010

मीडिया तौसे छिन न जाए वॉचडॉग का तमगा!

एक लेखिका

पिल सिब्बल शिक्षा व्यवस्था की सारी खामियां हटाने में जुटे हैं। ग्रेड सिस्टम, एक सिलेबस और उच्च तकनीकी संस्थाओं की बाढ़ लाने को तैयार है। नाकारा यूनिवर्सिटीज को ब्लैक-लिस्टेड किया जा रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री अपनी ऊट-पटांग फिल्मों के बीच कभी समाज को आईना दिखाने की कोशिश करती है। आमिर खान सरीखे गिने चुने अभिनेता समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने में जुटे है। उनका कहना है कि अगर बच्चे इडियट है तो भी कोई बात नहीं - उन्हें वो करने दो, जिसमें उनकी रूचि है।

देश भर से युवाओं और बच्चों की आत्महत्याओं की खबरों के बीच, लखनऊ के एक एम. ए. सी. टॉपर युवक के कमरे में बंद होकर अंधाधुंध फायरिंग करने की खबर आती है। घर वाले बताते है कि शमीम डिप्रेशन का शिकार था। पल भर में राष्ट्रीय समाचार चैनलों के कैमरे का फोकस वहां हो जाता है। पल पल की खबर। युवक की पॉजिशन- पुलिस का एक्शनसारे देश के दिमाग में सिर्फ एक उलझन, कि इस युवक को सही सलामत रखते हुए बंदूक छीनी कैसे जाए? करीब 38 घंटे के बाद पुलिस युवक को काबू कर पाने में कामयाब हो पाती है। लेकिन पल पल की रिर्पोटिंग देखकर एक सैंकेंड के लिए लगा, कि युवक तो मानसिक रूप से कमजोर है। मगर समाचार चैनलों मे तो देश का एक बड़ा बुद्धिमान वर्ग काम करता है। आखिर उसे क्या हो गया है? उसी दिन कॉमनवेल्थ शूंटिंग में दो खलाड़ी देश को गोल्ड मेडल दिलाते है। यह एक या दो मिनट के लिए स्क्रीन पर आता है। महंगाई की दर बढ़कर 8 फीसदी से ज्यादा हो जाती है और कोई समाचार चैनल इस विषय पर दस मिनट की बहस करने की जहमत भी नहीं उठाता है। शिबू सोरेन के सहायक पर सीबीआई कार्रवाई पर मातम जैसी शांति और तीन दिन पहले माओवादियों के खतरनाक इरादों के शिकार 24 जवानों की मौत पर कोई बैचेनी किसी समाचार चैनल के जरिए बाहर झांकती नजर नहीं आती।

एक दिन में सारे देश को मनोचिकित्सा के बारे में इतनी जानकारी हो जाती है। मगर भारत में बढ़ते मनोरोगियों की संख्या पर कोई चर्चा नहीं। शमीम को काबू करने की घटना का पल-पल का अपडेट और पुलिस को कोसने के बजाए अगर इस विषय पर एक नई बहस को जन्म मिलता तो दूसरों को अपने दायित्व निभाने की सीख देने वाले मीडिया के सही अर्थों में अपने दायित्व निभाने की बात सामने आ पाती। मगर इस अंतहीन बहस के अंत में बस इतनी सी बात कि मीडिया इन प्रश्रचिन्हों को हटाने के बजाए प्रश्रचिन्ह क्यों बन रहा है।

सहीं या गलत का निर्णय समय और परिस्थिति पर छोड़ दिया जाना चाहिए। पर सीमाएं तो तय करनी ही होगीं। कहने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है, कि ऐसे शमीम की समस्या पर बात न हो, लेकिन असली समस्या से दूरी क्यों? ऐसी हरकतों से वॉचडॉग पर निगरानी के लिए भी अब किसी डॉग की जरुरत महसूस हो रही है। और, मीडिया से वॉचडॉग की संज्ञा छिनने का खतरा तो नजर आ ही रहा है।

(एक लेखिका जयपुर स्थित एक पत्रकार हैं। राजस्थान के शीर्ष अखबारों में से एक में काम करने के साथ आप रचनात्मक लेखन भी करती रही हैं। मीडिया, समाज और देश के गंभीर मुद्दों पर संबंधित लोगों के हल्के रूख से उद्वेलित रहती हैं।)

Monday, 15 February 2010

Sherkhan's will only be in books then..

Only 1411 of them are left now in the country. Their skins are in demand for rugs, wall hangings and fur coats. Even medicines are made from their bones and other parts. Just eight months we lost a total of 66 more. Yes, It is Our national animal Sherkhan or tiger we are talking about. Blogging, writing, sms-ing – do whatever it takes to spread the message. Writes Mercy Barkakoty...

The national animal of our nation is on the verge of extinction. A survey conducted by the Wildlife Protection Society of India has given us a clear image of the grievous situation. Different NGOs have also done a survey on its own and have come out with grim results. It depicts that in just eight months we lost a total of 66 tigers, which is a huge number in itself. The causes are manifold.

Blame it on poaching or disease or old age or man-animal conflict, we are moving a step ahead to losing the animal. Surely we do not wish our coming generation to find the tigers only in the history books. With rapid development the country is losing out its forests.

Where do the tigers go?? Their habitat is threatened by such developments.
There are just 1411 tigers left and the country must do something to stop this from happening.

Loss, fragmentation, and degradation of forests have been major factors in the decline of the tiger population. Illegal killing also plays an increasingly damaging role as tigers have become more vulnerable. Habitat loss remains a grave danger for the tiger, particularly in Asia. In India, where there is a human population problem, people are always looking for more room which infringes on the tiger habitat. When people reside close to tigers, they transform the ecological system with cattle and crops and this in turn harms the tigers.

Poaching of tigers has been playing a determining factor for the loss of the big cats. Tiger skins are in demand for rugs, wall hangings and fur coats. Even medicines are made from the bones and other parts of the tiger. The demand for such medicines is high in China and also in India. It is interesting to know that most of the tiger based drugs are found out only where there are Chinese communities. Poaching of tigers has also been prevalent in places like Myanmar, Vietnam and Laos where anti-poaching laws are lenient. We can say that China has a growing demand for tigers and this need to be sorted out as soon as possible.

The mating of tigers has also been a cause of concern. Recent surveys have found out that there are not enough female tigers compared to the male counterparts. Such a situation will only add to the decrease of the tigers.

Tiger being our national animal deserves the attention of the nation. Just 1411 tigers remaining – it is a grim situation. The government needs to go to that extra mile to save the tigers, not just save, but increase their numbers also. A strong political will is essential to curb the problem. Our country is a democracy. Let the voice of the general public be heard.

We being responsible citizens can definitely spread the awareness and send the message loud and clear, "Save-the-Tiger" to the concerned authorities. Blogging, writing, sms-ing – do whatever it takes to spread the message. Let us stand united against poaching. Let us demand stricter punishment for the poachers, because unless the poachers are handled with an iron fists the situation will remain critical. Let us join hands to "SAVE THE TIGER". A small initiative by everyone and we can help preserve them. The national animal should and must be protected.

Act responsibly, act now.

Statewise tiger deaths: from January 1 to August 19, 2009

Source: Wildlife Protection Society of India.

Andhra Pradesh: 1 tiger poached, 1 skin seized
Assam: 6 tigers found dead, 1 found incapacitated dies, 1 shot dead by forest dept., 1 tigress poached, 5 kg bones, 4 canines and other body parts seized
Goa: 1 tiger poached
Karnataka: 6 tigers found dead, 4 tiger skins seized
Madhya Pradesh: 1 skin seized, 1 tigress poached, 10 tigers including 3 cubs found dead
Maharastra: 7 tigers including 3 cubs found dead.
Manipur: 2 skulls, 2 paws and 16 kg bones seized
Orissa: 1 tiger poached
Rajasthan: 1 tigress found dead
Tamil Nadu: 1 skin seized, 1 cub found dead
Uttar Pradesh: 2 tigers found dead, 1 tiger shot dead by forest dept., 30 kg bone seized
Uttarakhand: 6 tigers found dead, 1 skin and skeleton seized
W. Bengal: 1 tiger found dead, 2 skins and 1 skeleton seized

(Mercy is a Journalist based in Delhi. She did her English Journalism from Indian Institute Of Mass Communication (IIMC, New Delhi). She worked in a prestigious Publication House in Delhi. At present she's with one of the leading English news dailies in the country. Having a good experience of working with various NGO's specifically in North-East, She loves her motherland and takes great pride in writing about issues pertaining to North-Eastern part of India.)

Tuesday, 19 January 2010

'Hips don't lie' @ Oxford :पॉप गायिका शकीरा का ऑक्सफोर्ड व्याख्यान

अभी पिछले महीने ख्यात पॉप गायिका शकीरा ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षा के लोकतंत्रीकरण पर व्याख्यान दिया। चाहे ऐसा लगता हो कि बड़े दिमाग वाले लोगों को जन्म देने और दुनिया को ज्यादा पढ़े लिखे लोगों का ब्रांड देने वाला ऑक्सफोर्ड भला शकीरा जैसे नाचने-गाने वाले सेलैब्रिटी से क्या बोल पाने की उम्मीद कर रहा था। ऐसी गायिका जिसने 'हिप्स डोंट लाइ' जैसे लोकप्रिय गाने बनाए, उसे बुलाया गया और उसने निराश नहीं किया। उसके बोले गए आखर शिक्षा और भविष्य की दुनिया पर व्यापक टिप्पणी करने की कोशिश करते हैं।

कोलंबिया की पॉप गायिका शकीरा अपने बैयरफुट फाउंडेशन के जरिए वह गरीब बच्चों के बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने पर काफी पहले से ही काम कर रही हैं। कुछ ऐसे ही विषय पर उन्हें दक्षिणी इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 7 दिसंबर को व्याख्यान के लिए बुलाया गया। इससे पहले ऑक्सफोर्ड में अल्बर्ड आंइस्टीन, मदर टेरेसा, दलाई लामा और अमेरिका के कई प्रधानमंत्री वक्ता के तौर पर बुलाए जा चुके हैं। हो सकता है कि यह व्याख्यान उनके किसी सहयोगी ने लिखा हो या स्वयं उन्होंने ही, लेकिन इसे पढऩा रोचक है।

( ये व्याख्यान कुछ लंबा है। इसे मूल अंग्रेजी में नीचे दिया जा रहा है। इसके अलावा वीडीयो देखने के लिए लिंक भी चुना जा सकता है।)

http://www.shakira.com/news/title/watch-shakiras-oxford-speech

The Democratization of Education
December 7, 2009

" Thank you Oxford, and thank you Oxford Union.

It is truly an honor and a privilege to be here today and that you have afforded me this opportunity to speak to you.I must confess, I am somewhat mystified as to why you are here. I won’t be singing… and there won’t be any hipshaking.

So, how do I, a girl from Barranquilla, Colombia come to occupy the same stage as Newton and Churchill? Lord knows I’m no Mother Teresa, but here I am, nonetheless.I realize that the one point of view from which I can depart is that of an artist. After all, it is who I am. We artists depend on our imaginations.

When I first learned I was coming, I thought about the past and I imagined the future. From your minds, ideas will sprout that will give new shape to the world. I cannot help but fast-forward to what the world will be like in 50 years. What will be happening? Who will we be? How will we live? What challenges can we overcome?
I have a fantasy about this future that I want to share with you. Let me put it this way, if civilization were a car, we would have been cruising at 20 miles per hour for millions of years only to hit light speed in the last hundred. What made us accelerate so quickly recently and how can we continue this pace? There is only one explanation: the democratization of education.

Think about it....just recently a fossil was discovered in Africa, the oldest human fossil at over four million years. Our ancestors may have been slightly smaller than they are now but not significantly so particularly if you compare them to me since I am 5’ 3"….well ok 5’2").

From then to now, humans learned, slowly but surely, the tools and methods they needed to survive and thrive in what would become modern civilization. We learned how to walk, then run, then dance; we learned to grow our food, to store our food, to share our food; we learned the basics of commerce, and mathematics; we learned to work with tools, and fight with tools, and write with language, and fight with language. We learned how to harness fire, and harness horses, and harness the power of the wind and the sun.

All before we got here. Over 4 million years.

We know that in the Middle Ages, education was reserved by, and for, a few, a handful of people with access to the precious resources of knowledge -- writing, reading, libraries. The rest of the population, well, they weren’t so lucky; they lived unexamined lives, carting stone and wood from one place to another, unable to participate in intellectual conversation.No doubt that intellectual elite felt safe and secure in restricting knowledge and information -- believing, as they did, that a little knowledge is a dangerous thing. But what they didn’t appreciate was that hoarding knowledge was far more dangerous.

There was no critical mass of thought that allowed humanity to truly advance, to rescue them from plague, to invent the vaccines that would extend their lives, to devise the sociological models that would allow society to flourish.These civilizations rose and fell and rose again; but in comparison to the present, the pace of development was incredibly slow… like a river one must stare at, with unbroken concentration to detect the movement of the current.But what they didn’t anticipate was the Renaissance, the Enlightenment, and later the Industrial Revolution! Suddenly, a middle class emerged, and everywhere people began to engage with each other, sharing their knowledge -- and instead of having a few thousand people thinking for everyone, there were millions of readers, writers, creators, artists, academics, teachers and students, becoming a true collective of shared resources, an ongoing, endless exchange of our most vital resource: information.

But then, a hundred years or so ago, we really picked up the pace. Suddenly, we pushed down hard on the accelerator. Suddenly, we were aboard a space shuttle, speeding through the sky, piercing the boundaries of the earth’s atmosphere, traveling thousands of miles to the moon, staking a flag on its surface, and sharing that breathtaking moment with the rest of the world through a device known as the television. Thank God for Televisions…

How could we moved so quickly?

It shouldn’t be surprising, really. The human race, after all, has only one collective conscience. We exist in a vast ocean, but we are the school of fish that moves in concert, zigzagging from left to right, together, in unison. Education is how we communicate, how we coordinate, how we cooperate.What we know now that they didn’t know then is that all minds form one common intellect. The more people share knowledge the stronger the knowledge base grows, just as a burning fire grows when stoked by an increasing amount of wood.We have achieved so much and we owe it to one basic but transformational concept..The democratization of education.

It is the airplane that brought me to England, the medicine that allows grandparents to meet their grandchildren, the philosophy that expands our individual liberties, and the technology that sent us to the moon.I do not subscribe to the idea that the older days were better days. I strongly believe that the best is yet to come, with universal access to education to feed our collective intelligence, with our commitment to meet and organize in places like this, among students like you – we could be so close to creating a network of intellects, an enormous think tank devoted to sharing the best ideas and inspiring each other to keep learning, keep informing, and keep advancing our world. And finding solutions to our common issues. Wouldn’t that be great?

We have evolved so far in the course of human history, with so many technological advances in just the past century, how will we evolve in the next ten tears, or twenty years, or fifty years – now that we know that the world has shrunk and has become just one big neighborhood.You are the architects of change. So tell me, how many things that seem inconceivable today will be obvious tomorrow? How long will man live? How will society be structured? Will we still be organized in couples? In communities? Governed by governments, led by presidents and prime ministers? Will we be able to breathe underwater? Will we eat junk food without gaining weight? I’d like that. Will Nike invent a pair of sneakers that will allow us to fly like Harry Potter?

Like John Locke, I am too impatient to wait. He says it, I sing it: "Why wait for later; I’m not a waiter." I like to make things happen. (by the way, that ‘s from a song on my new album SHE WOLF in stores now). Anyways…

Nine years ago, as part of the Millennium Development Goals, leaders from around the world made a pledge to transform the world so that every child would have access to a primary school by the year 2015. That is just over five years from now. Sadly, their actions have not met their promises. Sadly, at the current pace of change, we won’t have universal access to education in a hundred years, let alone five. That is unacceptable.

Especially, when the world has the resources to feed itself several times over, then, why are children starving? Latin America, alone has 3 times the necessary abundance to feed it’s own population.These children can’t wait a hundred more years.They need us to cure a child with Leukemia or AIDS with a simple pill or a breakthrough vaccine. We need to live in a world in which together, we can find a solution to global warming so we don’t have to worry every single time a storm begins to form on the horizon. We need to find new ways to distribute food so no child goes to bed hungry.And I know that education is our ticket.How do I know? Because I’ve seen it.

I was born and raised in a country marked by civil conflict, social strife and inequality. Growing up in the developing world, where education is perceived as a luxury and not as right; where children beg for an education and parents are desperate to provide it; where if one is born poor, one is destined to do die poor.But the good news, is that there is an exit strategy to break the cycle of poverty in which millions are trapped because of lack of access to education. From the moment I turned 18, I decided to establish my own foundation in Colombia. And since then we have been working on providing high quality education, nutrition for children and occupational training for their parents, building schools that also work as community centers for families that have been displaced by violence that have lost everything they had.

We found the way to keep kids in school and maintain parents involvement in their children’s education. Providing nutritious meals in schools we have decreased the number of dropouts and we have eradicated malnutrition among our students.So we know that creating comprehensive models of education in areas where the population is vulnerable to extreme poverty and conflict, transforms the minds and the lives of not only children but entire communities. And it works. Believe me, it works.
I’m still a student on all these issues, but I’ve come to learn that there are ways to change this. So no government can say that the challenge of bringing education to every child is an impossible task. Because we know how to enroll all those 75 million kids who don’t have access to any kind of primary education, by:Abolishing school fee’s, Hiring quality teachers, Providing uniforms and textbooks to children And providing most importantly food, because no kid can learn on an empty stomach and because we’ve proven that it becomes the best incentive for parents to send their kids to school and reduce child labor.

Now I want to be clear about this, this isn’t about charity. This is about investing in human potential. From an ethical point of view, from a moral point of view, it accomplishes a purpose. But also from an economic point of view, this could bring enormous benefits to all mankind. Universal education is the key to global security and economic growth.

Security
We all want safer nations. And in a world where weak states are often a haven for violent extremists, getting more children into school can dramatically help reduce the risk of instability and lay the groundwork for more stable democratic political systems to emerge. A child who lives in extreme poverty away from school is 10 times more likely to be recruited by a militant group then one who is receiving an education. For instance in Colombia we have kids in our schools who were destined to be a part of the drug trafficking business or recruited by guerrillas, today, as we speak they are going to college and like you, are graduating soon. So yes, education promotes peace and stability worldwide. Isn’t that what we all want?

Economic Growth
On the other hand, education helps catalyze economic growth.One single year of primary education invested means a 10 to 20% increase in wages in their adult life. For every dollar invested in early childhood development programs, that same child will give back 17. So yeah, education also boosts economic growth.So I, for one, would definitely like to go faster. I want to go faster because, with so many challenges, faster is better. I want to go faster because faster is more just.And they need us to do it all tomorrow. I say: let’s do it today.So I look to you to help us go faster. I look to you to foster -- no, more than that, to become -- the network of collaborative minds that can stimulate the evolution of human understanding.

I look to you to press down on that accelerator so that in fifty years, your children will look back and say:"A long time ago, people could not formulate an efficient form of distribution of food to eliminate starvation and hunger, despite the technological advances of the time and the excess of food. But then they began to incorporate millions and millions of children in the web of knowledge -- because they began to realize that the democratization of education is the engine that propels the world."

That is how I want the youth of 2060 to see us. That our mission for global peace consisted of sending 30,000 educators to Afghanistan, not 30,000 soldiers. That in 2010, world education became more important than world domination.Because only education will accelerate our evolution.

Only by investing in our children, by tapping their potential that has remained untapped for too long, can they one day cure our diseases, or bring us to Mars, or secure us peace here on earth।Because, it bears repeating, we are one world.
One civilization.
One conscience.
One engine.
One destiny.


And so, if I have just one more thought to offer you and to add to our one collective conscience here today, it is this: Education for all.John Locke, who I believe was one of yours, once said, "the only fence against the world is a thorough knowledge of it, and the earlier the better." So yeah, the earlier the better. There is no time to waste. It is you who are in the driver’s seat. It is your foot on the accelerator.

And please, step on it.

Thank you very much.
This has been a true honor.