Monday, 31 May 2010

'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' .... और मृत्यु

मैं यह समझता हूं कि ये सब दिमागी मेहनत की बात है। जमाना नया आ गया है, मगर लोगों के सोचने और यकीन करने का तरीका पुराना है। लोग गांधीवाद को मानते हैं। मगर गांधी टोपी की जगह गांधी-मग और गांधी-टीशर्ट खरीदते हैं। संयम, स्वदेश और लघु-उद्योग धंधों के पेरोकार गांधी को ब्रांड के तौर पर 'मो ब्लां' के 60 लाख के पेन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। चे गुवेरा अपनी समाजवादी, साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई को लेकर जंगलों में भटकते रहे और मार दिए गए, मगर आज का युवा वर्ग चे-ब्रांड वाली टीशर्ट को पहनकर ऐसा महसूस कर लेता है, मानो कहीं आंदोलन करने जा रहा है।

ये बात उस धुंध को कुछ समझने की है। ये उस संकरित व्यवहार को समझने की है, जो संकरित व्यवहार पुराने ख्यालात और संस्कारों से पोषित बच्चों और उनके सामने खड़े सपाट विश्व-बाजारीकरण-टीवी-पूंजी की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा हुआ है।

ऐसा ही कुछ पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों-अधेड़ों के साथ है। उनके दिमाग को समझना बड़ा जटिल काम होगा। पढऩे, लिखने, वोट डालने, घूमने जैसी हर आजादी देने के बाद प्यार करने की आजादी के नाम पर इन मां-बाप को अपनी परंपराओं-संस्कारों और इतिहास के दूषित हो जाने का डर सताता रहता है। इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं नजर आता है कि लड़की पत्रकार हो गई है। लड़की सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो गई है। आखिर है तो अभी भी अपनी पैदा की हुई संतान ही।

कई सवाल और सोच भी संभवत: बुजुर्गों के मन में घूमती रहती होगी। अब लड़की तो दिल्ली में बढऩे चली गई। पढ़ लिखकर कुछ बड़ी-नामवाली बन भी गई, मगर। मगर मां-बाप तो अभी भी दूर-दराज के राज्य के वासी ही है। उनके आस-पड़ोस रहने वाले तो महानगरीय नहीं हुए। समाज बसा है। इज्जत बनी है। इन्हीं मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के चलते हरियाणा, राजस्थान की खांप पंचायतों ने अपनी सोच के ईर्द-गिर्द एक रेखा खींच ली है। इस रेखा के आर या पार आना-जाना इनकी बर्दाश्त से बाहर है। ये बात ओर है कि जान देकर भी लोग इसके अंदर या बाहर जाने से खुद को रोक नहीं पाते। प्यार करने से खुद को रोक नहीं पाते।

निरुपमा की मृत्यु की खबर दरअसल 'लव सेक्स और धोखा' फिल्म के प्रदर्शित होने के कुछ दिन बाद ही आई। इस फिल्म के आने का वक्त अपने लिहाज से काफी सही है। ये बात ओर है कि इस पर किसी ने गौर नहीं किया कि किस गंभीर तरीके से इसे फिल्म में पेश किया गया है। समाज से जुड़ी तीन खबरों को दिमाग में रखकर दिबाकर बेनर्जी ने 'एलएसडी' बनाई। इनमें एक खबर निरुपमा की कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। प्यार होता है, प्यार के सपने लिए जाते हैं, मां-बाप भी बेहद प्यार करते हैं, लड़की प्यार में पागल है, समझदार है, मगर इसके नतीजों की हदों से अंजान है। अंत में होता वही है। मां-बाप मान जाने के बहाने दोनों को बुलाते हैं और कुल्हाड़ी से उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। दिबाकर बेनर्जी की एलएसडी की ये कहानी और निरुपमा की कहानी इस बात को साफ कर देती है कि आज समाज और सदी के बदलते चेहरे में प्यार करना 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के राज और सिमरन की कहानी नहीं रह गई है।

या तो समाज के पुराने वृक्षों को समझाइए। वही वृक्ष जिन्होंने हमें जन्म दिया है। या फिर उनके समझदार होने इंतजार कीजिए। अगर इंतजार नहीं कर सकते हैं तो फिर मौत तय है। हरियाणा के किसी खेत की सूखी खेजड़ी में आपकी और आपके प्रेमी की लाश लटकी मिलेगी। या, आपको दिन-दहाड़े पत्थरों से मार-मारकर खत्म कर दिया जाएगा। ठीक कुछ पश्चिम एशियाई देशों के सामाजिक कानून की तर्ज पर। या फिर एक दिन खबर आएगी की आप नहीं रही हैं। या तो आप पंखे से लटक गई हैं, या आपको जहर दे दिया गया है या आपके मुंह पर तकिया रखकर आपको इस संसार में लाने वालों ने विदा कर दिया है। बस पीछे बचेगा तो निर्मोही अफसोस।

वाकई यह एक खतरनाक स्थिति में हम है। जहां, एक खास पीढ़ी और समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के दिमाग पर एक बेहद खास किस्म के मनोविज्ञान की परतें चढ़ी है। जिसके चलते उन्हें एक 'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' की परवाह ज्यादा है। अपनी औलाद की जान की कम। समाज क्या कहेगा इसका डर उतना ही ज्यादा है, जितना कि एक भंयकर गलती करने का कम।

गजेन्द्र सिंह भाटी

Wednesday, 26 May 2010

'मैं नहीं समझता कि..... नक्सली आतंकी हैं.

मैं नहीं समझता कि घर के ही हिंसक हो गए। मैं यह भी नहीं मानता कि संबंधित लोग क्रांतिकारी या आतंकवादी हैं। दरअसल इन बातों को करने से पहले एक स्थिति है।

स्थिति यह है कि कोई अंबानी-बंबानी अपने तिमाही-छमाही या सालाना शुद्ध मुनाफे को कई गुना यानी हजारों करोड़ रुपये बढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह किसी राज्य की सरकार के साथ एमओयू यानी मैमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग यानी समझौता पत्र पर दस्तखत करता और करवाता है। सरकार अपने और अपने शासन की उपलब्धियों या जीडीपी को धन से आंकती है। कि, भई देखो फलाणी सरकार ने 65,000 हजार करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित किया है। या देखो राज्य का विकास किया है, 1,00,000 करोड़ रुपये का निवेश जुटाया है।

जनता को क्या पता चलता है? बस उतना ही जितना सरकार बताती है। लोग सुबह अखबार में ऐसा पढ़ते हैं, अपने 21वीं सदी में जाने और विकास दर के मुस्तैद रहने का सा अनुभव करते हैं और काम पर चले जाते हैं। इसके कुछ दिन बाद उन्हें खबर आती है कि इलाके में नक्सलियों का आतंक बढ़ गया है। और सुनने में आता है कि नक्सली दरिंदे हैं, रक्तपिपासु हैं। फिर सुनने में आता है कि इलाके के लोगों ने नक्सलियों से खुद निपटने की ठानी है। इस सोच का नाम 'सल्वा जुडूम' (इसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी और सरकार की निजी नागरिक-सेना यानी मिलिशिया करार दिया) है। इसमें सरकार लोगों की मदद कर रही है और सरकारी हथियारों से लैस आदिवासी लोग सरकारी शिविरों में रह रहे हैं और नक्सलियों को धूल चटा रहे हैं। फिर सुनने में आता है कि नक्सलियों ने पुलिस जवानों से भरे ट्रक को उड़ा दिया है, इतनी औरतों को विधवा कर दिया। देश में बहसें होनी शुरू होती है और वाक्य उभरता है, क्या नक्सली आतंकवादी हैं?

अब हम सभी ने राज्य में निवेश की घोषणा और नक्सलियों द्वारा ट्रक को विस्फोट से उड़ाए जाने की खबर के बीच 'बहुत कुछ' खो दिया। या, जानबूझकर उस बहुत कुछ का पता ही लोगों को नहीं लगने दिया गया। आखिर विशाल अंतरराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों-करोड़ रुपये अपनी पीआर और मीडिया मैनेजमेंट एंजेंसियों पर यूं ही खर्च तो नहीं करती। तभी तो टाटा जी हमें ब्रह्मस्वरुप और निर्मल नजर आते हैं। अनिल जी हमें विनम्र नजर आते हैं। ललित जी हमें खेल कारोबार के इतिहासपुरुष लगते हैं। और कुछ वक्त पहले तक सत्यम ही हमें कॉरपोरेट दुनिया की असल पवित्रता नजर आती थी।

असल में ये हैं क्या? हम नहीं जानते और जान भी नहीं पाएंगे। तभी तो केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को मंत्रालय दिलाने और कॉरपोरेट घरानों को लाभ दिलाने में सुपर दलाल नीरा राडिया का नाम सबूत समेत सामने आया। इसमें देश के शीर्ष पत्रकारों बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम भी कांग्रेस में ए राजा के पक्ष में लांबिग करने में ठोस तौर पर सामने आया। अब राजा जी 70,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की 3जी आवंटन मुहिम के कर्ता-धर्ता है। कंपनियां 3जी लाइसेंस पाने के लिए दीवारों के पीछे भी तो सरकारी और निजी हाथों में कई करोड़ रखती हैं ना। मगर, देखिए कहीं कोई जूं भी नहीं रेंगी। सब वैसे के वैसे ही हैं। आखिर नक्सलियों की एक महीन सी अच्छाई सामने नहीं आ पाती है और इन सज्जनों या दुर्जनों का एक भी अवगुण (छोटा-बारीक या कम से कम महीन ही) आम आदमी को क्यों नहीं मालूम हो पाता है?

कुछ वक्त के लिए मैं बस मान लेता हूं कि मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं, जहां प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक धन संपदा है, जंगल हैं, हरियाली है। मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं जहां मेरे पुरखे जन्में और दफन हुए। जहां की मिट्टी मेरी रग-रग में समाई है। जहां कि शुद्ध हवा के बिना में जी नहीं सकता हूं। और सदियों से यही मुझ जैसे मेरे पूरे समाज की रिहाइश है। जंगल ही मेरी ऑक्सीजन है। मुझे मेरे जंगलों से अलग करने का मतलब मेरी हत्या करना है।

अब पहुंचते हैं सरकार द्वारा हजारों करोड़ का निवेश आकर्षित करने की घोषणा वाले दिन पर। क्या हम जानते हैं कि निवेश कौन कर रहा है? क्यों कर रहा है? कैसे कर रहा है? और किस कीमत को लेकर कर रहा है? उस निवेश की एवज में हमें क्या देना होगा? नहीं जानते हैं। निवेश में कितनी पारदर्शिता बरती जा रही है? निवेश की घोषणा के वक्त खनन के इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से क्या पूछा गया?

नकी पवित्र नियामगिरी की पहाडिय़ों पर खुदाई शुरू हुई, मगर संविधान में लिखा है कि स्थानीय रहवासियों से पूछ बगैर आप खुदाई नहीं कर सकते हैं। मगर, सब खोद दिया गया और खोदा जा रहा है। मधु कोड़ा पहले ऐसे निर्दलीय थे, जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री बने। खबरें आई और दब गई कि खनन माफिया ने सरकार बनवाने और इससे पहले की सरकार गिरवाने में करोड़ लगाए। दक्षिण में रेड्डी भाइयों का राजनीति और खनन में फैला साम्राज्य भी 'द इंडियन एक्सप्रेस' में एक सीरिज के तौर पर सामने आया। इसमें ठोस तौर पर बारीक से बारीक सबूतों के साथ खबर दी गई। मगर कहीं किसी के चींचड़ भी नहीं लगा, जूं भी नहीं रेंगी।

और न जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि सफेद कुर्ता पहने लोग लाखों को उजाड़ देते हैं, टाई और काला कोट पहने करोड़ लगाकर अरबों का खोद लेते हैं और धन के नाले बहते रहते हैं। यह सब ऊपर ही ऊपर होता रहता है। मगर सवाल बनता है तो बस ये कि क्या नक्सली आतंकवादी हैं? और, सरकार उनपर हवाई हमला आखिर कब करेगी? आर नॉट वी गेटिंग लेट?

राज्य सरकार विदेशी-स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लालच और अपनी जेब भारी होने की एवज में राज्य पर एक तरह से राज करने की छूट दे देती है। बहुराष्ट्रीय कंपनी सीधे उन जंगली इलाकों में जाती है, जहां आदिवासी और प्रिमेटिव लोग शांति और सुकून से रहते हैं। वहां की जमीन अभ्रक, बॉक्साइट और लोहे जैसी अमूल्य धातुओं से युक्त है। कंपनी 4 रुपये देगी और 40 की जमीन खोदेगी। इससे 36 रुपये का फायदा कंपनी के मालिक को होगा। यानी अंबानी-बंबानी अपनी बीवी के अगले जन्मदिन पर 500-1000 करोड़ रुपये का चार्टर प्लेन गिफ्ट कर सकेंगे या फिर बंबई के पॉश इलाके में दुनिया का सबसे महंगा 40 मंजिला घर महल बना सकेंगे। उस प्लेन में बैठेंगे कितने ? 2 जने, और उस घर में रहेंगे कितने ? 6 जने। मगर उस जंगल से उजडेंगे कितने 2 लाख या 6 लाख लोग। और, साथ ही उजड़ेगी वहां की प्राकृतिक संपदा, शुद्ध हवा।

अब मुझे बताइए कि जब आप मुझे मेरी ऑक्सीजन से अलग कर देंगे। मुझे कॉर्नर में कर देंगे। मेरे पास न शारीरिक बल है, ना हि राजनीति-संविधान की समझ। मैं वैसा अपराधी भी नहीं हूं, जिसे कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर कानून तोडऩा आता हो। मैं वो भी नहीं हूं जो धड़ाधड़ अग्रेंजी बोलकर सेलेब्रिटी बन सकता हो। जो राष्ट्रीय खबरिया चैनलों के फिल्मनुमा डिबेट कार्यक्रमों में शानदार भाषा-शैली में डोमीनेट कर सकता हो। जिसे संविधान और राष्ट्र के नाम का भ्रामक संदर्भ देकर स्टूडियो में बैठे और टीवी के जरिए देख रहे करोड़ों लोगों को ब्रेनवॉश करना आता हो। मैं तो इनमें से कोई भी नहीं। और, ऊपर की बातों में जैसे मीडिया मैनेजमेंट और कॉरपोरेट फ्रॉड के उदाहरण और उनके नतीजे हैं, उनसे तो साबित हो ही जाता है कि कोई ऐसा रास्ता बचता ही नहीं है जिसपर चलकर कोई भी साधारण आदमी इंसाफ का ख्वाब भी ले सकता हो। फिर मैं तो एक जंगल में रहने वाला आदमी हूं, जिसे शहर का मतलब भी नहीं पता।

किसी बंदर के बच्चे को कोने में घेरकर नुकीले तीर या लकड़ी से घोपेंगे, तो वह रोता हुआ, कराहता हुआ, बद्दुआएं देता हुआ आखिर क्या करेगा? उसे तो एक हद तक आक्रामक होकर मारे जाने के अलावा कुछ आता भी तो नहीं है ना। उसके मर जाने पर अगले शिकार की ओर बढ़ा जाता है। और, अगर गलती से भी वह हजारों हमलावरों में से एक को भी मार पाता है तो उसे खूंखार और आदमखोर कहकर प्रचारित किया जाएगा। और, पूरे समुदाय को इन दो शब्दों के सहारे आंदोलित किया जाएगा। बाद में उस बेजान को भरे राष्ट्रीय दोराहे पर चीर दिया जाएगा।

गजेन्द्र सिंह भाटी