मैं यह समझता हूं कि ये सब दिमागी मेहनत की बात है। जमाना नया आ गया है, मगर लोगों के सोचने और यकीन करने का तरीका पुराना है। लोग गांधीवाद को मानते हैं। मगर गांधी टोपी की जगह गांधी-मग और गांधी-टीशर्ट खरीदते हैं। संयम, स्वदेश और लघु-उद्योग धंधों के पेरोकार गांधी को ब्रांड के तौर पर 'मो ब्लां' के 60 लाख के पेन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। चे गुवेरा अपनी समाजवादी, साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई को लेकर जंगलों में भटकते रहे और मार दिए गए, मगर आज का युवा वर्ग चे-ब्रांड वाली टीशर्ट को पहनकर ऐसा महसूस कर लेता है, मानो कहीं आंदोलन करने जा रहा है।
ये बात उस धुंध को कुछ समझने की है। ये उस संकरित व्यवहार को समझने की है, जो संकरित व्यवहार पुराने ख्यालात और संस्कारों से पोषित बच्चों और उनके सामने खड़े सपाट विश्व-बाजारीकरण-टीवी-पूंजी की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा हुआ है।
ऐसा ही कुछ पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों-अधेड़ों के साथ है। उनके दिमाग को समझना बड़ा जटिल काम होगा। पढऩे, लिखने, वोट डालने, घूमने जैसी हर आजादी देने के बाद प्यार करने की आजादी के नाम पर इन मां-बाप को अपनी परंपराओं-संस्कारों और इतिहास के दूषित हो जाने का डर सताता रहता है। इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं नजर आता है कि लड़की पत्रकार हो गई है। लड़की सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो गई है। आखिर है तो अभी भी अपनी पैदा की हुई संतान ही।
कई सवाल और सोच भी संभवत: बुजुर्गों के मन में घूमती रहती होगी। अब लड़की तो दिल्ली में बढऩे चली गई। पढ़ लिखकर कुछ बड़ी-नामवाली बन भी गई, मगर। मगर मां-बाप तो अभी भी दूर-दराज के राज्य के वासी ही है। उनके आस-पड़ोस रहने वाले तो महानगरीय नहीं हुए। समाज बसा है। इज्जत बनी है। इन्हीं मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के चलते हरियाणा, राजस्थान की खांप पंचायतों ने अपनी सोच के ईर्द-गिर्द एक रेखा खींच ली है। इस रेखा के आर या पार आना-जाना इनकी बर्दाश्त से बाहर है। ये बात ओर है कि जान देकर भी लोग इसके अंदर या बाहर जाने से खुद को रोक नहीं पाते। प्यार करने से खुद को रोक नहीं पाते।
निरुपमा की मृत्यु की खबर दरअसल 'लव सेक्स और धोखा' फिल्म के प्रदर्शित होने के कुछ दिन बाद ही आई। इस फिल्म के आने का वक्त अपने लिहाज से काफी सही है। ये बात ओर है कि इस पर किसी ने गौर नहीं किया कि किस गंभीर तरीके से इसे फिल्म में पेश किया गया है। समाज से जुड़ी तीन खबरों को दिमाग में रखकर दिबाकर बेनर्जी ने 'एलएसडी' बनाई। इनमें एक खबर निरुपमा की कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। प्यार होता है, प्यार के सपने लिए जाते हैं, मां-बाप भी बेहद प्यार करते हैं, लड़की प्यार में पागल है, समझदार है, मगर इसके नतीजों की हदों से अंजान है। अंत में होता वही है। मां-बाप मान जाने के बहाने दोनों को बुलाते हैं और कुल्हाड़ी से उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। दिबाकर बेनर्जी की एलएसडी की ये कहानी और निरुपमा की कहानी इस बात को साफ कर देती है कि आज समाज और सदी के बदलते चेहरे में प्यार करना 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के राज और सिमरन की कहानी नहीं रह गई है।
या तो समाज के पुराने वृक्षों को समझाइए। वही वृक्ष जिन्होंने हमें जन्म दिया है। या फिर उनके समझदार होने इंतजार कीजिए। अगर इंतजार नहीं कर सकते हैं तो फिर मौत तय है। हरियाणा के किसी खेत की सूखी खेजड़ी में आपकी और आपके प्रेमी की लाश लटकी मिलेगी। या, आपको दिन-दहाड़े पत्थरों से मार-मारकर खत्म कर दिया जाएगा। ठीक कुछ पश्चिम एशियाई देशों के सामाजिक कानून की तर्ज पर। या फिर एक दिन खबर आएगी की आप नहीं रही हैं। या तो आप पंखे से लटक गई हैं, या आपको जहर दे दिया गया है या आपके मुंह पर तकिया रखकर आपको इस संसार में लाने वालों ने विदा कर दिया है। बस पीछे बचेगा तो निर्मोही अफसोस।
वाकई यह एक खतरनाक स्थिति में हम है। जहां, एक खास पीढ़ी और समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के दिमाग पर एक बेहद खास किस्म के मनोविज्ञान की परतें चढ़ी है। जिसके चलते उन्हें एक 'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' की परवाह ज्यादा है। अपनी औलाद की जान की कम। समाज क्या कहेगा इसका डर उतना ही ज्यादा है, जितना कि एक भंयकर गलती करने का कम।
गजेन्द्र सिंह भाटी
ये बात उस धुंध को कुछ समझने की है। ये उस संकरित व्यवहार को समझने की है, जो संकरित व्यवहार पुराने ख्यालात और संस्कारों से पोषित बच्चों और उनके सामने खड़े सपाट विश्व-बाजारीकरण-टीवी-पूंजी की क्रॉस ब्रीडिंग से पैदा हुआ है।
ऐसा ही कुछ पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों-अधेड़ों के साथ है। उनके दिमाग को समझना बड़ा जटिल काम होगा। पढऩे, लिखने, वोट डालने, घूमने जैसी हर आजादी देने के बाद प्यार करने की आजादी के नाम पर इन मां-बाप को अपनी परंपराओं-संस्कारों और इतिहास के दूषित हो जाने का डर सताता रहता है। इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं नजर आता है कि लड़की पत्रकार हो गई है। लड़की सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो गई है। आखिर है तो अभी भी अपनी पैदा की हुई संतान ही।
कई सवाल और सोच भी संभवत: बुजुर्गों के मन में घूमती रहती होगी। अब लड़की तो दिल्ली में बढऩे चली गई। पढ़ लिखकर कुछ बड़ी-नामवाली बन भी गई, मगर। मगर मां-बाप तो अभी भी दूर-दराज के राज्य के वासी ही है। उनके आस-पड़ोस रहने वाले तो महानगरीय नहीं हुए। समाज बसा है। इज्जत बनी है। इन्हीं मनोवैज्ञानिक जटिलताओं के चलते हरियाणा, राजस्थान की खांप पंचायतों ने अपनी सोच के ईर्द-गिर्द एक रेखा खींच ली है। इस रेखा के आर या पार आना-जाना इनकी बर्दाश्त से बाहर है। ये बात ओर है कि जान देकर भी लोग इसके अंदर या बाहर जाने से खुद को रोक नहीं पाते। प्यार करने से खुद को रोक नहीं पाते।
निरुपमा की मृत्यु की खबर दरअसल 'लव सेक्स और धोखा' फिल्म के प्रदर्शित होने के कुछ दिन बाद ही आई। इस फिल्म के आने का वक्त अपने लिहाज से काफी सही है। ये बात ओर है कि इस पर किसी ने गौर नहीं किया कि किस गंभीर तरीके से इसे फिल्म में पेश किया गया है। समाज से जुड़ी तीन खबरों को दिमाग में रखकर दिबाकर बेनर्जी ने 'एलएसडी' बनाई। इनमें एक खबर निरुपमा की कहानी का प्रतिनिधित्व करती है। प्यार होता है, प्यार के सपने लिए जाते हैं, मां-बाप भी बेहद प्यार करते हैं, लड़की प्यार में पागल है, समझदार है, मगर इसके नतीजों की हदों से अंजान है। अंत में होता वही है। मां-बाप मान जाने के बहाने दोनों को बुलाते हैं और कुल्हाड़ी से उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। दिबाकर बेनर्जी की एलएसडी की ये कहानी और निरुपमा की कहानी इस बात को साफ कर देती है कि आज समाज और सदी के बदलते चेहरे में प्यार करना 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के राज और सिमरन की कहानी नहीं रह गई है।
या तो समाज के पुराने वृक्षों को समझाइए। वही वृक्ष जिन्होंने हमें जन्म दिया है। या फिर उनके समझदार होने इंतजार कीजिए। अगर इंतजार नहीं कर सकते हैं तो फिर मौत तय है। हरियाणा के किसी खेत की सूखी खेजड़ी में आपकी और आपके प्रेमी की लाश लटकी मिलेगी। या, आपको दिन-दहाड़े पत्थरों से मार-मारकर खत्म कर दिया जाएगा। ठीक कुछ पश्चिम एशियाई देशों के सामाजिक कानून की तर्ज पर। या फिर एक दिन खबर आएगी की आप नहीं रही हैं। या तो आप पंखे से लटक गई हैं, या आपको जहर दे दिया गया है या आपके मुंह पर तकिया रखकर आपको इस संसार में लाने वालों ने विदा कर दिया है। बस पीछे बचेगा तो निर्मोही अफसोस।
वाकई यह एक खतरनाक स्थिति में हम है। जहां, एक खास पीढ़ी और समाज के एक बहुत बड़े हिस्से के दिमाग पर एक बेहद खास किस्म के मनोविज्ञान की परतें चढ़ी है। जिसके चलते उन्हें एक 'एबस्ट्रेक्ट' शब्द 'इज्जत' की परवाह ज्यादा है। अपनी औलाद की जान की कम। समाज क्या कहेगा इसका डर उतना ही ज्यादा है, जितना कि एक भंयकर गलती करने का कम।
गजेन्द्र सिंह भाटी
3 comments:
bahut badhiya likha hai dost. Badlav bahut zaruri hai, rasta bhi hame hi talashna hoga.
haqiqat me badhiya post...chota aur satiik.
pehle k posts se kafi alag aur umda hai.
ab kya kahe humari generation to pyar mohbat naam ki chidiya ko door se hi dekh dekh k khus ho lena padega .....humari ane wali pidhi yani aj se lagbhag 20 saal bad...naujawan shayd aram se apni pasand ki/ka ladka/ladki se shadi kar payega....
ab kya hai ki...youngsters pe dono or se pressure hai maa baap ki samajik izzat(which is self created illusion) aur apne man pasand wayqti k sath jiwan bitane ka.....so shadi k baad wala pyar hi theek hai...butt....iski validity to lifetime hai lekin Value added services nahi mil payegi......zindgi apas me ladne jhagane me hi nikal jayegi.....
apni pasand k insan se shadi karne me kam se kam pachtava to nahi hoga ki fala fala se shadi karta to aaj ye hota na vo hota na......bhale hi roj jhagde ho...dipression ho..
sukh sagar singh bhati
http://discussiondarbar.blogspot.com/
Mr.bhati apne bahut hi badhiya dhang se in teeno sabdo ka vyakhyan kiya hai. its really nice........
Log kahate hai ki jodiya swarg me banti hai par......sach to ye hai ki pyar karne walo ka faisla ya to badnami ki galiyo,khap panchayat ya phir sarkari nark me hota hai.
Moochh ki shan rakhane ke liye roj ye hatyaye is samaj me Mahamari ki tarah phelati ja rahi hai.Or is tarah ki hatyaye sirf krodh me hi nahi balki bahut hi yojanabadh or neeyojit tarike se ki ja rahi hai.
Ab na to Heer-Ranjha hai or na hi Lela-Majnu.or ho bhi khaise.?????
Ijajat ki khatir mrityu (honour killing)Ary kaisi ijajat jo kisi ki jindagi se jada kimati ho jati hai.
Hamara samaj bhi aisa hai jo apni suvidhao ke liye niyam banata or todata hai.yadi man le hamare desh me sirf kuch hi gini-chuni ladkiya bachengi to ye khap panchayato ke thekedar jo Antarjatiy vivah ke virudh hai.vahi Antarjatiy vivah to chodiye ye apni chacheri ,mameri,phupheri bahan or betiyo se apne pariwar ke vansh ke liye ye khud hi sadi karvayenge. Ya to phir mard sharirik roop se balwan hai,vo aurat ko panchali bana kar rakhege.
Ya phir door kisi gaun me jab kisi ladaki ka balatkar ho jata hai to ya to use usi kasai ke gale me badh denge ya phir hamare samaj ko uski sudhikaran ke liye poore gaun ko bhoj karaye.Ary ye kaisa sudhikaran or kaisa samaj........?????????? jo insaniyat ko hi nigale ja raha hai.
Post a Comment