Wednesday, 26 May 2010

'मैं नहीं समझता कि..... नक्सली आतंकी हैं.

मैं नहीं समझता कि घर के ही हिंसक हो गए। मैं यह भी नहीं मानता कि संबंधित लोग क्रांतिकारी या आतंकवादी हैं। दरअसल इन बातों को करने से पहले एक स्थिति है।

स्थिति यह है कि कोई अंबानी-बंबानी अपने तिमाही-छमाही या सालाना शुद्ध मुनाफे को कई गुना यानी हजारों करोड़ रुपये बढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह किसी राज्य की सरकार के साथ एमओयू यानी मैमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग यानी समझौता पत्र पर दस्तखत करता और करवाता है। सरकार अपने और अपने शासन की उपलब्धियों या जीडीपी को धन से आंकती है। कि, भई देखो फलाणी सरकार ने 65,000 हजार करोड़ रुपये का निवेश आकर्षित किया है। या देखो राज्य का विकास किया है, 1,00,000 करोड़ रुपये का निवेश जुटाया है।

जनता को क्या पता चलता है? बस उतना ही जितना सरकार बताती है। लोग सुबह अखबार में ऐसा पढ़ते हैं, अपने 21वीं सदी में जाने और विकास दर के मुस्तैद रहने का सा अनुभव करते हैं और काम पर चले जाते हैं। इसके कुछ दिन बाद उन्हें खबर आती है कि इलाके में नक्सलियों का आतंक बढ़ गया है। और सुनने में आता है कि नक्सली दरिंदे हैं, रक्तपिपासु हैं। फिर सुनने में आता है कि इलाके के लोगों ने नक्सलियों से खुद निपटने की ठानी है। इस सोच का नाम 'सल्वा जुडूम' (इसे सुप्रीम कोर्ट ने गैरकानूनी और सरकार की निजी नागरिक-सेना यानी मिलिशिया करार दिया) है। इसमें सरकार लोगों की मदद कर रही है और सरकारी हथियारों से लैस आदिवासी लोग सरकारी शिविरों में रह रहे हैं और नक्सलियों को धूल चटा रहे हैं। फिर सुनने में आता है कि नक्सलियों ने पुलिस जवानों से भरे ट्रक को उड़ा दिया है, इतनी औरतों को विधवा कर दिया। देश में बहसें होनी शुरू होती है और वाक्य उभरता है, क्या नक्सली आतंकवादी हैं?

अब हम सभी ने राज्य में निवेश की घोषणा और नक्सलियों द्वारा ट्रक को विस्फोट से उड़ाए जाने की खबर के बीच 'बहुत कुछ' खो दिया। या, जानबूझकर उस बहुत कुछ का पता ही लोगों को नहीं लगने दिया गया। आखिर विशाल अंतरराष्ट्रीय कंपनियां करोड़ों-करोड़ रुपये अपनी पीआर और मीडिया मैनेजमेंट एंजेंसियों पर यूं ही खर्च तो नहीं करती। तभी तो टाटा जी हमें ब्रह्मस्वरुप और निर्मल नजर आते हैं। अनिल जी हमें विनम्र नजर आते हैं। ललित जी हमें खेल कारोबार के इतिहासपुरुष लगते हैं। और कुछ वक्त पहले तक सत्यम ही हमें कॉरपोरेट दुनिया की असल पवित्रता नजर आती थी।

असल में ये हैं क्या? हम नहीं जानते और जान भी नहीं पाएंगे। तभी तो केंद्रीय संचार मंत्री ए राजा को मंत्रालय दिलाने और कॉरपोरेट घरानों को लाभ दिलाने में सुपर दलाल नीरा राडिया का नाम सबूत समेत सामने आया। इसमें देश के शीर्ष पत्रकारों बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम भी कांग्रेस में ए राजा के पक्ष में लांबिग करने में ठोस तौर पर सामने आया। अब राजा जी 70,000 करोड़ रुपये से ज्यादा की 3जी आवंटन मुहिम के कर्ता-धर्ता है। कंपनियां 3जी लाइसेंस पाने के लिए दीवारों के पीछे भी तो सरकारी और निजी हाथों में कई करोड़ रखती हैं ना। मगर, देखिए कहीं कोई जूं भी नहीं रेंगी। सब वैसे के वैसे ही हैं। आखिर नक्सलियों की एक महीन सी अच्छाई सामने नहीं आ पाती है और इन सज्जनों या दुर्जनों का एक भी अवगुण (छोटा-बारीक या कम से कम महीन ही) आम आदमी को क्यों नहीं मालूम हो पाता है?

कुछ वक्त के लिए मैं बस मान लेता हूं कि मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं, जहां प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक धन संपदा है, जंगल हैं, हरियाली है। मैं ऐसे इलाके का वाशिंदा हूं जहां मेरे पुरखे जन्में और दफन हुए। जहां की मिट्टी मेरी रग-रग में समाई है। जहां कि शुद्ध हवा के बिना में जी नहीं सकता हूं। और सदियों से यही मुझ जैसे मेरे पूरे समाज की रिहाइश है। जंगल ही मेरी ऑक्सीजन है। मुझे मेरे जंगलों से अलग करने का मतलब मेरी हत्या करना है।

अब पहुंचते हैं सरकार द्वारा हजारों करोड़ का निवेश आकर्षित करने की घोषणा वाले दिन पर। क्या हम जानते हैं कि निवेश कौन कर रहा है? क्यों कर रहा है? कैसे कर रहा है? और किस कीमत को लेकर कर रहा है? उस निवेश की एवज में हमें क्या देना होगा? नहीं जानते हैं। निवेश में कितनी पारदर्शिता बरती जा रही है? निवेश की घोषणा के वक्त खनन के इलाकों में रहने वाले आदिवासियों से क्या पूछा गया?

नकी पवित्र नियामगिरी की पहाडिय़ों पर खुदाई शुरू हुई, मगर संविधान में लिखा है कि स्थानीय रहवासियों से पूछ बगैर आप खुदाई नहीं कर सकते हैं। मगर, सब खोद दिया गया और खोदा जा रहा है। मधु कोड़ा पहले ऐसे निर्दलीय थे, जो किसी राज्य के मुख्यमंत्री बने। खबरें आई और दब गई कि खनन माफिया ने सरकार बनवाने और इससे पहले की सरकार गिरवाने में करोड़ लगाए। दक्षिण में रेड्डी भाइयों का राजनीति और खनन में फैला साम्राज्य भी 'द इंडियन एक्सप्रेस' में एक सीरिज के तौर पर सामने आया। इसमें ठोस तौर पर बारीक से बारीक सबूतों के साथ खबर दी गई। मगर कहीं किसी के चींचड़ भी नहीं लगा, जूं भी नहीं रेंगी।

और न जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि सफेद कुर्ता पहने लोग लाखों को उजाड़ देते हैं, टाई और काला कोट पहने करोड़ लगाकर अरबों का खोद लेते हैं और धन के नाले बहते रहते हैं। यह सब ऊपर ही ऊपर होता रहता है। मगर सवाल बनता है तो बस ये कि क्या नक्सली आतंकवादी हैं? और, सरकार उनपर हवाई हमला आखिर कब करेगी? आर नॉट वी गेटिंग लेट?

राज्य सरकार विदेशी-स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के लालच और अपनी जेब भारी होने की एवज में राज्य पर एक तरह से राज करने की छूट दे देती है। बहुराष्ट्रीय कंपनी सीधे उन जंगली इलाकों में जाती है, जहां आदिवासी और प्रिमेटिव लोग शांति और सुकून से रहते हैं। वहां की जमीन अभ्रक, बॉक्साइट और लोहे जैसी अमूल्य धातुओं से युक्त है। कंपनी 4 रुपये देगी और 40 की जमीन खोदेगी। इससे 36 रुपये का फायदा कंपनी के मालिक को होगा। यानी अंबानी-बंबानी अपनी बीवी के अगले जन्मदिन पर 500-1000 करोड़ रुपये का चार्टर प्लेन गिफ्ट कर सकेंगे या फिर बंबई के पॉश इलाके में दुनिया का सबसे महंगा 40 मंजिला घर महल बना सकेंगे। उस प्लेन में बैठेंगे कितने ? 2 जने, और उस घर में रहेंगे कितने ? 6 जने। मगर उस जंगल से उजडेंगे कितने 2 लाख या 6 लाख लोग। और, साथ ही उजड़ेगी वहां की प्राकृतिक संपदा, शुद्ध हवा।

अब मुझे बताइए कि जब आप मुझे मेरी ऑक्सीजन से अलग कर देंगे। मुझे कॉर्नर में कर देंगे। मेरे पास न शारीरिक बल है, ना हि राजनीति-संविधान की समझ। मैं वैसा अपराधी भी नहीं हूं, जिसे कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर कानून तोडऩा आता हो। मैं वो भी नहीं हूं जो धड़ाधड़ अग्रेंजी बोलकर सेलेब्रिटी बन सकता हो। जो राष्ट्रीय खबरिया चैनलों के फिल्मनुमा डिबेट कार्यक्रमों में शानदार भाषा-शैली में डोमीनेट कर सकता हो। जिसे संविधान और राष्ट्र के नाम का भ्रामक संदर्भ देकर स्टूडियो में बैठे और टीवी के जरिए देख रहे करोड़ों लोगों को ब्रेनवॉश करना आता हो। मैं तो इनमें से कोई भी नहीं। और, ऊपर की बातों में जैसे मीडिया मैनेजमेंट और कॉरपोरेट फ्रॉड के उदाहरण और उनके नतीजे हैं, उनसे तो साबित हो ही जाता है कि कोई ऐसा रास्ता बचता ही नहीं है जिसपर चलकर कोई भी साधारण आदमी इंसाफ का ख्वाब भी ले सकता हो। फिर मैं तो एक जंगल में रहने वाला आदमी हूं, जिसे शहर का मतलब भी नहीं पता।

किसी बंदर के बच्चे को कोने में घेरकर नुकीले तीर या लकड़ी से घोपेंगे, तो वह रोता हुआ, कराहता हुआ, बद्दुआएं देता हुआ आखिर क्या करेगा? उसे तो एक हद तक आक्रामक होकर मारे जाने के अलावा कुछ आता भी तो नहीं है ना। उसके मर जाने पर अगले शिकार की ओर बढ़ा जाता है। और, अगर गलती से भी वह हजारों हमलावरों में से एक को भी मार पाता है तो उसे खूंखार और आदमखोर कहकर प्रचारित किया जाएगा। और, पूरे समुदाय को इन दो शब्दों के सहारे आंदोलित किया जाएगा। बाद में उस बेजान को भरे राष्ट्रीय दोराहे पर चीर दिया जाएगा।

गजेन्द्र सिंह भाटी

6 comments:

माधव( Madhav) said...

i also think so


We live in a nation where Rice is Rs.40/- per kg and Sim Card is free.
Pizza reaches home faster than Ambulance and Police.
Car loan @ 5% but education loan @ 12%.
Students with 45% get in elite institutions thru quota system and those with 90% get out because of merit.
2 IPL teams are auctioned at 3300 crores and we are still a poor country where people starve for 2 sqaure meal per day.
Assembly complex buildings are getting ready within one year while public transport bridges alone takes several years to be completed.
एक गरीब रिक्सा वाला अगर बैंक में जाकर रिक्से के लिए लों मांगे तो बैंक मैनेजर उसे भगा देगा , अनिल अम्बानी आपने अगले प्रोजेक्ट के लिए लों मांगे तो बैंक का जी एम् उनके घर जाकर लों का चेक दे
INCREDIBLE INDIA

Unknown said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

Really nice, I liked the casual tone of the article. When I read the heading it seemed that you would justify naxlism and their acts and I had formed a negative opinion even before reading the article. but you rather discussed the root causes and real reason behind it and raising questions to ourselves and to the government which makes it more interesting to read..
nicely written ky baat:)

हिमांशु शेखर said...

Gajendra,
You are right but violence can not be justified. I think we and policymakers shold try to think out of box to get a positive, respectable and satisfactory result.

गजेन्द्र सिंह भाटी said...

@माधव,
आभार।
आपने मेरे अभिव्यक्त किए हुए को कई गुना कर दिया। ये टिप्पणी सब कुछ कहती है। हालत तो ये है कि गृह मंत्रालय ने एक सुर्कलर जारी किया है कि जो भी ऐसे लेख लिखेगा उसे 10 साल जेल की सजा हो सकती है। तो, अगर कल को मुझे इस लेख के लिए जेल हो जाए तो हेरत की बात नहीं। अब इसके आगे मैं क्या कहूं।

@किशु,
तुम्हारी टिप्पणी सदैव संतुलित और समझ-बूझ वाली होती है। बहुमूल्य।

@हिमांशु,
असहमति मय सहमति। धन्यवाद।

@सुमन जी,
धन्यवाद।

Harshvardhan said...

तुमसे सहमती रखता हूँ.....सरकार नक्सली समस्या का हल खोजने में विफल रही है... वह ये नहीं समझ पा रही है कि वे भी इस देश का एक हिस्सा है... उनकी लडाई विकास को लेकर है ...यह लडाई पेट को लेकर है... जब उन्हें उनकी घर की जमीनसे बेदखल जाएगा और मालिकाना हक नहीं मिलेगा तो उनका हिंसक होना तो लाजमी ही है....